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________________ २७६ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका भावार्थ-"अरि-रज-रहस-विहीन' जो अरहंत परमेष्ठी माहरूपी शत्रु व १८ दोषों से रहित है ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्मरूपी रज से रहित है, तथा अन्तराय कर्म से रहित हैं अर्थात् चार धातिया कर्मों के क्षय से चार अनन्त चतुष्टय को प्राप्त होने से पूज्य अरहन्त भगवन्तों को मेरा नमस्कार हो । धर्म को नमस्कार क्षात्यार्जवादि-गुण गण-सुसाधनंसकल-लोक-हित-हेतुम् । शुभ-धामनि घातारं वन्दे धर्मं जिनेन्द्रोक्तम् ।।६।। अन्वयार्थ-( क्षान्ति-आर्जव-आदि गुण-गण-सु साधनं ) जो उत्तम क्षमा, सरलता आदि गुण समूह की प्राप्ति का उत्तम साधन है ( सकललोक-हित-हेतुम् ) सम्पूर्ण लोक के जीवों के हित का कारण है ( शुभधानि) स्वर्ग-मोक्ष समरसम यानों में (बारा) धरने वाला है उस ( जिनेन्द्र-उक्तम् ) जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहे गये ( धर्म ) धर्म को ( बन्दे) नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-जिनेन्द्रदेव के द्वारा प्रतिपादित उस धर्म की मैं वन्दना करता हूँ जो उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, अथवा शांति, कोमलता, सरलता, संतोष आदि गुणों के समूह की प्राप्ति कराने के लिये अमोघ साधन है, तीन लोक के समस्त प्राणियों का हितकारी है तथा संसार के दुःखों से छुड़ाकर स्वर्ग-मोक्ष रूप उत्तम स्थानों में पहुँचाने वाला है। जिनवाणी की स्तुति मिथ्याज्ञान-तमोवृत-लोकैक-ज्योति-रमित-गमयोगि। सांगोपांग-मजेयं जैनं वचनं सदा वन्दे ।।७।। अन्वयार्थ ( मिथ्याज्ञान-तमोवृत-लोक-एकज्योतिः ) मिथ्या ज्ञान रूप अन्धकार में डूबे लोक में जो अद्वितीय ज्योतिरूप है ( अमित-गमयोगि ) अपरिमित श्रुत ज्ञान से जो सहित है ( अजेय ) अजेय है/किसी परवादी के द्वारा जीतने योग्य नहीं है ऐसे ( सङ्ग-उपाङ्ग) अंग और उपाङ्गों से युक्त ( जैनं वचनं ) जिनेन्द्र वचन-जिनवाणी ( सदा वन्दे ) मैं सदा नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-ग्यारह अंग-चौदह पूर्व अधबा अंग प्रविष्ट व अंगबाह्य
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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