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विमल ज्ञान प्रभोधिनी टीका
सिद्धि इष्ट नहीं हैं ( निजगुणहतिः न ) ज्ञान-दर्शन आदि स्व गुणों का नष्ट हो जाना सिद्धि नहीं है । ( तत् ) क्योंकि आत्मा का अभाव और गुणों का नाश सिद्धि मानने वालों के यहाँ ( तपोभिः न युक्तेः ) तपश्चरण आदि की योजना नही बनती ( आत्मा अस्ति ) आत्मा है, ( अनादि बद्ध ) अनादिकाल से कर्मों से बद्ध है / कर्म सहित हैं ( स्वकृतज फलभुक् ) अपने द्वारा किये शुभ-अशुभ कर्मों के फल का भोक्ता है ( तत्क्षयात् ) कर्मों के क्षय हो जाने से ( मोक्षमार्गी ) मुक्ति को प्राप्त होता है, ( ज्ञाता - दृष्टा ) जाननेदेखने स्वभाव वाला है ( स्वदेह - प्रमिति ) अपने शरीर प्रमाण है ( उपसमाहार विस्तार धर्मा ) संकोच विस्तार स्वभाव वाला है ( श्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा ) उत्पाद, व्यय और भव्य रूप है तथा ( स्वगुण युत) अपने आत्मीय गुणों से सहित है | ( इतः अन्यथा ) इससे भिन्न मान्यता वालों के ( साध्यसिद्धिः न ) साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती, मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
भावार्थ – यहाँ सिद्धभक्ति में पूज्यपाद स्वामी ने अन्य दर्शनों की मान्यताओं का निराकरण करते हुए सिद्ध भगवान् के गुणों का सुन्दर चित्रण किया है----
बौद्ध दर्शन वालों का मत है कि तैल के क्षय हो जाने पर दीपक की लौ ऊपर नीचे इधर-उधर कहीं न जाकर वहीं समाप्त हो जाती है, वैसे ही कर्मों का क्षय / क्लेश का नाश हो जाने से आत्मा वही समाप्त हो होता है यही सिद्धि है । इस कथन का निराकरण करने के लिये आचार्य देव ने लिखा है "नाभावः सिद्धिरिष्टा " |
वैशेषिक व योग दर्शनों की मान्यता में बुद्धि, ज्ञान, सुख, इच्छा आदि विशेष गुणों का नाश सिद्धि है। इस कथन का निराकरण करते हुए आचार्य देव लिखते हैं
तत्तपोभिर्न युक्तः ! क्योंकि कोई भी बुद्धिमान अपने आप का सर्वधा नाश करने के लिये अथवा अपने विशिष्ट गुणों का घात करने के लिये तपश्चरण आदि को नहीं करता ।
आत्मा के अस्तित्व के संबंध में विविध दर्शनों की विभिन्न मान्यताएँ हैं— चार्वाक आत्मा को पृथ्वी आदि से उत्पन्न मानते हैं। वे शरीर से