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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अतिरिक्त आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । उसके निराकरणार्थ आचार्य देव ने स्तुति में “अस्त्यात्मा" आत्मा है, पद रखा है।
ईश्वरवादी दर्शन आत्मा को "सदा-अकर्मा' मानते हैं उसके निराकरण के लिये भक्ति में “अनादि बद्ध" पद दिया गया है । जिसका भाव है प्रत्येक आत्मा अनादिकाल से कनकोपलवत् कर्मबद्ध है । अपनी विशुद्धि, साधना, तपश्चरणादि से कर्म रहित होता है।
वेदान्त दर्शन जीव को लोकव्यापी मानता है, उसका खंडन करने के लिये आचार्य देव ने “स्वदेह-प्रमितिः' यह पद दिया है। जिसका भाव है--आत्मा नामकर्म के उदय से प्राप्त अपने शरीर प्रमाण है।
आत्मा संकोच विस्तार स्वभाव वाला होने से चीटी के शरीर में संकोच को हाथी के शरीर में विस्तार को प्राप्त होता है । अर्थात् जैसा शरीर प्राप्त होता है, उसमें रहता है । तथापि केवल समुद्घात के समय यह आत्मा समस्त लोक में फैल जाता है।
सांख्य दर्शन की मान्यता है कि कर्म का कर्ता पुरुष/आत्मा नहीं, प्रकृति है तथा कर्म फल का भोक्ता भी आत्मा नहीं है । इस मान्यता का निराकरण करने के लिये यहाँ "स्वकृतजफलभुक्' पद दिया है। इसका भाव है-आत्मा अपने द्वारा किये कर्मों के फल को स्वयं भोगता है ।
वैशेषिक और योग दर्शन में मान्यता है कि आत्मा के सिद्धि अवस्था को प्राप्त होने पर गुणों का नाश हो जाता है, उसके निराकरण में "ज्ञातादृष्टा' पद की यहाँ संयोजना की है अर्थात् मुक्ति अवस्था में जीव ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अनंत गुणों का स्वामी रहता है।
नैयायिक दर्शन गुण और गुणी में सर्वथा भेद मानता है, उनकी इस मान्यता का खंडन करते हुए "स्वगुणयुत” पद दिया गया है। जिसका भाव है-आत्मा सदैव अपने आत्मीय गुणो से तन्मय रहता है। तथा
सांख्य दर्शन की मान्यता है आत्मा कूटस्थ नित्य है और बौद्ध दर्शन की मान्यता है कि आत्मा क्षण-क्षण में नष्ट हो रहा है. इन दोनों मतों के निराकरणार्थ आचार्य देव ने यहाँ –'ध्रौव्योत्पत्ति व्ययात्मा" पद