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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका २५५ संतप्त कर किट्टकालिमा को दूर कर देता है तब स्वर्ण पाषाण अपने वास्तविक रूप को प्राप्त हो शुद्धाता से युक्त स्वर्ण पर्याय को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार " सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" शुद्धनय से प्रत्येक भव्यात्मा सिद्ध भगवन्तों के समान शुद्ध हैं। प्रत्येक भव्यात्मा सिद्धअवस्था/सिद्ध पर्याय को प्राप्त करने की योग्यता रखता है, परन्तु ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों से आवृत हुआ, कर्मकीट्टिका से मलीन होता हुआ शुद्ध मुक्त पर्याय को प्रकट नहीं कर पाता है। जब भव्यात्मा “ १२ तप और ४ आराधना रूप १६ ताव" रूप तपश्चरणादि करणों / निमित्तों की संयोजना करता हूँ तब विकारी भाव नष्ट होते ही कर्म-कीट से रहित हो आत्मा सिद्ध / मुक्त पर्याय को प्राप्त होता है। जिन भव्य जीवों ने अष्टकर्मों का क्षय कर दिया है आत्मा के को प्राप्त कर कहलाने " हैं । यहाँ स्तुतिकर्ता आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सिद्ध पद की प्राप्ति के लिये, उनके गुणों का स्मरण करते हुए, पूर्ण विशुद्ध अवस्था को प्राप्त सिद्ध भगवन्तों की वन्दना की है। यहाँ स्तुतिकर्ता आचार्य ने "गुणप्रग्रहाकृष्टितुष्ट" पद दिया यह अपने आपमें विचारणीय है— जैसे कूप / बावड़ी आदि में गिरी वस्तु को रस्सी के माध्यम में ऊपर खींचा जाता है, वैसे ही संसार रूपी गहन कूप में गिरे भव्य जीवों को सिद्ध परमेष्ठियों के श्रेष्ठ / महानतम गुणों में की जाने वाली भक्ति रूपी रस्सी ही तिराने में / ऊपर लाने में समर्थ हो सकती हैं। नाभावः सिद्धि- रिष्टा न, निज-गुण- हतिस्तत् तपोभिर्न युक्तेः, अस्त्यात्मानादि बद्धः, - स्व- कृतज फल- भुक् तत् क्षयान् मोक्षभागी । ज्ञाता दृष्टा सदेह - प्रमिति प्रौष्योत्पत्ति रुपसमाहार विस्तार A - - धर्मा, व्ययात्मा, स्व-गुण-युत इतो नान्यथा साध्य - सिद्धिः ।।२।१ अन्वयार्थ–( अभावः सिद्धिः इष्टा न ) आत्मा का अभाव हो जाना
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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