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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका जीता है कषायों को ( जित-जन्म-मरण रोगाः ) जीता है जन्म-मरण रूप रोगों को ( जितमात्सर्या: ) जीता हैं ईर्ष्या भावों को ऐसे (जिना: ) जिनेन्द्रदेव ( जयन्तु ) जयवन्त हो ।
भावार्थ- जिन्होंने मद-हर्ष- द्वेष- मोह परीषह कषाय- जन्म-मरणरूपी रोग तथा ईर्ष्या आदि विभावपरिणामों को जीत लिया है, वे जिनदेव / वीतराग प्रभु सदा जयवन्त हों ।
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जयतु जिन वर्धमानस्त्रिभुवनहित धर्म चक्र- नीरज-बन्धुः । त्रिदशपति मुकुट - भासुर, चूड़ामणि- रश्मि रञ्जितारुण - चरणः ।। ११ । । अन्वयार्थ - ( त्रिभुवनहित-धर्मचक्र - नीरजबन्धु ) तीन लोकों के जीवों का हितकारक धर्मचक्र रूपी सूर्य है, जिनके ( अरुण चरण: ) लाललाल चरण (त्रिदश-पति-मुकुट भासुर- चूडामणि- रश्मि रञ्जित ) इन्द्र के मुकुट में दीप्तिमान चूडामणि की किरणों से अधिक देशासमान हैं, ऐसे ( जिनवर्धमानः ) महावीर जिनेन्द्र ( जयतु ) जयवन्त हों । शो
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भावार्थ -- जिस प्रकार सूर्य, पद्म को विकसित करता हैं उसी प्रकार जिनका धर्मचक्ररूपी सूर्य तीनों लोकों के भव्यजीवरूपी कमलों का हित करने वाला है। जिनके लाल-लाल चरण १०० इन्द्रों के मुकुटों में देदीप्यमान चूड़ामणि की किरणों से अत्यधिक शोभायमान हैं, ऐसे महावीर भगवान सदा जयवन्त हों ।
हरिणी
जय जय जय त्रैलोक्य काण्ड - शोभि-शिखामणे,
नुद नुद नुद स्वान्तं ध्वान्तं जगत्- कमलार्क नः । नय नय नय स्वामिन् ! शान्तिं नितान्त मनन्तिमाम्,
नहि नहि नहि त्राता, लोकैक मित्र भवत् परः ।। १२ ।। अन्वयार्थ – (त्रैलोक्य काण्ड - शोभि-शिखामणे ! ) तीनों लोकों के समूह पर शोभायमान शिखामणि / चूड़ामणि स्वरूप हे भगवान् ! ( जयजय जय ) आपकी जय हो, जय हो जय हो । ( जगत्कमलार्क ) तीन
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जगत् के संसारी प्राणियों रूपी कमलों को विकसित करने के लिये सूर्य स्वरूप हे भगवान् ! ( नः स्वान्तध्वान्तं ) हमारे हृदय के अन्धकार को
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