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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
(जिनाय ) जिनदेव के लिये ( नमः ) नमस्कार हो । ( विमुक्तिमार्गप्रतिबोधकाय ) जो विशेष रूप से मुक्ति मार्ग के उपदेश को देने वाले हैं ऐसे ( देवाधिदेवाय ) देवो के भी देव (जिनाय ) जिनदेव के लिये ( नमः ) नमस्कार हो ।
भावार्थ - जो चतुर्णिकाय देवो से पूज्य हैं, जिनके १८ दोष क्षय हो गये हैं तथा जो अनन्त गुणों के सागर हैं। ऐसे वीतराग जिनेन्द्र को नमस्कार हैं । जो मुमुक्षु जीवों को मुक्ति मार्ग का उपेदश देते हैं ऐसे देवों के भी देव अरहंत देव / जिनेन्द्र देव को मेरा नमस्कार हो ।
वसन्ततिलका
देवाधिदेव ! परमेश्वर ! वीतराग !
सर्वज्ञ ! तीर्थकर ! सिद्ध ! महानुभाव !
त्रैलोक्यनाथ ! जिन पुंगव ! वर्धमान ! दिन! सोऽसि
॥१९॥ अन्वयार्थ - ( देवाधिदेव ! परमेश्वर ! वीतराग ! सर्वज्ञ ! तीर्थंकर ! सिद्ध ! महानुभाव ! त्रैलोक्यनाथ ! जिनपुङ्गव ! वर्धमान ! स्वामिन् ! ) हे देवाधिदेव ! हे परमेश्वर ! हे वीतराग ! हे सर्वज्ञ ! हे तीर्थंकर ! हे सिद्ध ! हे महानुभाव ! हे त्रैलोक्यनाथ ! हे जिन श्रेष्ठ ! हे वर्धमान ! हे स्वामिन्! मैं (ते ) आपके ( चरणद्वयं) दोनों चरणयुगल की ( शरणं ) शरण को ( गतः अस्मि ) प्राप्त होता हूँ ।
भावार्थ- जो वीतरागी, परमदेव, सर्वज्ञ, तीर्थकर, सिद्ध, महानुभाव, त्रैलोक्यनाथ, जिनश्रेष्ठ, वर्धमान स्वामी आदि विविध नामों से पुकारे जाते हैं ऐसे वीतराग देव! मैं आपके पूज्य, वन्दनीय चरण-युग की शरण में आया हूँ ।
आर्या जित-मद- हर्ष - द्वेषाजित- मोह परीषहाः जित - कषायाः ।
जित - जन्म-मरण - रोगाजित मात्सर्या जयन्तु जिनाः ।। १० ।।
अन्वयार्थ -- जिन्होंने ( जितमद-हर्ष-द्वेषा ) जीता है मद-हर्ष- द्वेष को ( जित - मोह परीषहा ) जीता है मोह और परीषहों को ( जितकषायाः )