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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका ( नुद-नुद-नुद ) नष्ट कीजिये, नष्ट कीजिये. नष्ट कीजिये स्वामिन् ! हे स्वामी ( अनन्तिमा शान्तिं ) अविनाशी/शाश्वत शान्ति को ( नितान्तं ) अवश्य ही ( नय-नय-नय ) प्राप्त कराइये, प्राप्त कराइये, प्राप्त कराइये ( लोकैकमित्र ! ) हे लोक के एकमात्र मित्र ! ( भवत्परः ) आपसे भिन्न आपको छोड़कर दूसरा कोई ( वाता) रक्षक ( नहि-नहि-नहि ) नहीं है, नहीं है, नहीं है।
भावार्थ हे अधो-मध्य-ऊर्ध्व नीनों लोकों के समूल मर सुशोत, चूडामणि रूप त्रिलोकीनाथ ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो । हे सूर्यसम त्रिजगत् के भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले “सूर्यस्वरूप भगवन्' ! हमारे हृदय में वासित मिथ्यात्व व अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट कीजिये, नष्ट कीजिये, नष्ट कीजिये । हे स्वामिन् ! कभी भी नष्ट नहीं होने वाली शाश्वत शान्ति को मुझे/ हमारे लिये प्राप्त कराइये, प्राप्त कराइये, प्राप्त कराइये । हे तीन लोक के अद्वितीय मित्र ! भगवान् ! आपको छोड़कर इस गहन संसार में मेरा अन्य कोई रक्षक नहीं है, नहीं है। नहीं है, अत: हे नाथ मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । मुझे संसार के दुःखों से बचाइये ।
बसन्ततिलका चित्ते मुखेशिरसिपाणि-पयोज-युग्मे,
भक्तिं स्तुति विनति-मञ्जलि-मासव । चेक्रीयते चरिकरीति चरीकरीति,
यश्चर्करीति तव देव! स एव धन्यः ।।१३।। अन्वयार्थ ( देव ) हे स्वामिन् ! ( य:) जो ( अञ्जसा एव ) यथार्थ रूप से ( चित्ते ) मन में ( तव ) आपकी ( भक्तिं ) भक्ति को ( चेक्रीयते) करता है । ( मुखे तव स्तुति ) मुख में आपकी स्तुति को ( चरिकरीति ) करता है । शिरसि तव विनति ) शिर पर आपकी विनती को ( चरीकरीति ) करता है ( पाणिपयोजयुग्मे ) हस्तकमल युगल में ( तव अञ्जलिं चर्करीति ) करता है ( स एव धन्यः ) वही धन्य है।
भावार्थ-हे त्रिलोकीनाथ स्वामिन् ! जो भव्यात्मा अपने दोनों हस्तकमलों अञ्जलि बाँधकर अर्थात् दोनों हाथों को कमलाकर रूप से जोड़कर मन से