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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका २३५: जिनेन्द्र क्षमायुक्त, सहिष्णु जितेन्द्रिय सुपार्श्व जिनेन्द्र की और पूर्णचन्द्रमा के समान कांति के धारक चन्द्रप्रभ भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ । प्रसिद्धिप्राप्त पुष्पदन्त जी की संसार के भय के नाशक शीतल जिनेन्द्र क, शील के समुद्र श्रेयांसनाथ जी को सौं इन्द्रों से पूज्य श्रेष्ठ जनों के गुरु वासुपूज्य भगवान् की, धातिया कर्मों से रहित, इन्द्रियविजेता विमलनाथ भगवान् ऋद्धिधारी मुनियों के स्वामी अनन्तनाथ भगवान् की, रत्नत्रय की ध्वजास्वरूप धर्मनाथ जी की और साम्यभाव के खजाने, संसार-दुःखों से पीड़ित, जीवों के शरणभूत शान्तिनाथ भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ। सिद्धालय में स्थित कुन्थुनाथ भगवान् की, हस्तगत चक्ररत्न के त्यागी "अर"जिनेन्द्र की, प्रसिद्ध इक्ष्वाकुवंशोत्पन्न मल्लिजिनेन्द्र, विद्याधरों के समूह से नमस्कृत सुख की राशि मुनि सुव्रतनाथ जी की, देवों से पूज्य नमि जिनेन्द्र की, भव का अन्त करने वाले हरिवंश के तिलकस्वरूप नेमिनाथजी, धरणेन्द्रवंदित पार्श्वनाथजी और वर्धमान जिनेन्द्र की मैं भक्ति से शरण को प्राप्त होता हूँ। अञ्चलिका इच्छामि भंते ! चउवीस-तित्ववर-प्रति-काउस्सगोकओ, तस्सालोचेलं, पंच-महाकल्लाण-संपण्णाणं, अट्ठ-महा-पाडिहेर-साहियाणं, चउतीसाऽतिसयविसेस-संजुत्ताणं, बत्तीस-देविंद-मणिमय-मउड-मत्ययमहिदाणं, बलदेव-वासुदेव चक्कहर-रिसि-मणि-जइ-अणगारोवगूढाणं, थुल-सब-सहस्स-णिलयाणं, उसहाइ-वीर-पछिम-मंगल-महा-पुरिसाणं, सया णिच्चकालं अच्चमि, पुज्जेमि, बंदामि, णमस्सामि दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं, समाहि-मरणं, जिण-गुण-संपत्ति होउ मज्झं । भंते ! हे भगवन् ! चौबीस तीर्थंकर भक्ति का कायोत्सर्ग मैंने किया। मैं तत्संबंधी आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। पञ्चकल्याणक से सम्पन्न, आठ प्रातिहार्यों से युक्त, बत्तीस देवेन्द्रों के मणिमय मुकुटों से सुशोभित, बलदेव, वासुदेव, चक्रवती, ऋषि, यति, मुनि व अनगार से पूजित लाखों स्तुतियों के खजाने श्री वृषभदेव से लेकर महावीरपर्यन्त मंगलमय महापुरुषों की मैं हमेशा अर्चना, पूजा, वन्दना करता हूँ, नमस्कार
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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