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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका हे भगद ! मैं प्रनिङमाण में ला अनिवारों की आलोचना करता हूँ। उसमें देश के आश्रय से, आसन के आश्रय से, स्थान के आश्रय से, काल के आश्रय से, मुद्रा के आश्रय से, कायोत्सर्ग के आश्रय से, नमस्कारादि विधि के आश्रय से, आवर्त आदि, से प्रतिक्रमण में, उनमें आवश्यक कर्मों के करने में मेरे द्वारा हीनता, अत्यासादना मन से, वचन से, काय से, की गई हो, कराई गई हो अथवा करने वाले की अनुमोदना की गई हो तो प्रतिक्रमण सम्बन्धी मेरे पाप मिथ्या हो ।
दसण-वय-सामाझ्य-पोसह-सचित्त-राहभत्ते य। बंभाऽऽरंभ-परिग्गह-अणुमणमुट्ठि-देसविरदेदे ।।१।।
एयासुजघा कहिद पडिमासु पमादाइ कयाचार सोहणटुं छेदोवडावणं होदु मझं । अरहंत सिद्ध आयरिय उवज्झाय सव्वसाहुसक्खियं, सम्मतपुधगं, सव्वदं दिहव्वदं समारोहियं मे भवदु, मे भवदु, मे भवदु ।
अथ देवसिओ ( राइय) पडिक्कमणाए सव्वाइचार विसेहिणिमितं, पुष्वारियकमेण चउवीस तित्थयर भक्ति कायोत्सर्ग करोमि ।
अब मैं दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण में लगे सब अतिचार रूप दोषों की विशुद्धि के निमित्त पूर्वाचार्यों के क्रम से चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग को करता हूँ।
[ णमो अरहंताणं इत्यादि दंडक पढ़कर ९ बार णमोकार मंत्र पढ़ें। पश्चात् थोस्सामि स्तव पढ़कर चौबीस तीर्थकर भगवान् की भक्ति पढ़ें।]
चउवीसं तित्ययरे उसहाइ-वीर-पच्छिमे वन्दे । सवेसगण-गण-हरे सिद्धे सिरसा णमंसामि ।।१।।
वृषभदेव को आदि लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीरपर्यन्त चौबीस तीर्थकरों को मैं नमस्कार करता हूँ। समस्त मुनिराज, गणधर और सिद्ध परमात्माओं को सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
जो लोक में एक हजार आठ लक्षणों के धारक हैं, जो समीचीन कारण हैं संसार रूपी जाल ( मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र ) का नाश करने वाले, चन्द्र व सूर्य से भी अधिक तेजस्वी मुनिगण इन्द्र, देव तथा सैकड़ों अप्सराओं के समूह से जिनकी स्तुति, अर्चना, वन्दना की गई है उन