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विपल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ— [ अट्ठाइज्जीव दो समुद्देसु] जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड और अर्द्धपुष्कर द्वीप-इन ढाई द्वीपों तथा लवण और कालोदधि इन दो समुद्रों में ( पण्णारस कम्मभूमिसु ) पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह-इन १५ कर्मभूमियों में होने वाले ( जाव) जितने ( अरहताणं ) अरहंत ( भयवंताणं ) भगवन्त ( आदियराणं ) आदितीर्थ प्रवर्तक ( तित्थयराणं) तीर्थकर ( जिणाणं ) कर्मशत्रुओं को जीतने वाले जिनों को ( जिणोत्तमागं ) जिनों में श्रेष्ठ तीर्थंकरों को ( केवलियाणं ) केवलज्ञान सम्पन्न ऐसे केवलियों को ( सिद्धाणं ) सिद्धों को ( बुद्धाणं ) त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों के ज्ञाता जिनसिद्धों को ( परिणिव्वुदाणं) मुक्ति को प्राप्त करने वाले सिद्धों को ( अन्तयडाणं) अन्तकृतकेवलियों को ( पारयडाणं) संसार सागर को पार करने वालों को ( धम्माइरियाणं) धर्माचार्य को ( धम्मदेसयाण ) मोपदेश देने वाले उपाध्यायों की { धम्मणायगाणं ) धर्मानुष्ठान करने वाले धर्मनायक साधु ( धम्मवर चाउरंग चक्कवट्टीणं ) उत्कृष्ट धर्मरूपी चतुरंग सेना के अधिपति ( देवाहिदेवाणं ) देवाधिदेव अर्थात् चतुर्निकाय देवों के द्वारा वन्दनीय होने से जो देवों के भी देव हैं ( णाणाणं ) ज्ञान ( दंसणाणं ) दर्शन ( चरित्ताणं ) चारित्र का ( सदा किरियम्मं करेमि ) हमेशा कृतिकर्म करता हूँ।
विशेष-अन्तकृत केवली-सम्पूर्ण कर्म जनित संसार का अन्त करने वाले अन्तकृत कहलाते हैं । अथवा प्रत्येक तीर्थकर के काल में घोर उपसर्ग को सहन कर अन्तर्मुहूर्त में घातिया कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर, अघातिया कर्मों का क्षय कर मुक्त होने वाले केवली अन्तकृत केवली कहलाते हैं। ये प्रत्येक तीर्थंकर के समय में १०-१० होते हैं।
करेमि मंते ! सामायियं सव्व-सावल जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं (आवनियम) तिविहेण मणसा, वचसा, काएण, ण करेमि, ण कारेमि, ण अण्णं करतं पि समणुमणामि । तस्स मंते ! अइचारं पडिक्कमामि, जिंदामि, गरहामि अप्पाणं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं पज्जुवासं करेमि, तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि ।