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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ--( भंते ) हे भगवान् ! ( सामायियं ) मैं सामायिक ( करेमि ) करता हूँ ( सव्वसावज्जजोगं ) समस्त सावद्ययोग का ( पच्चक्खामि ) त्याग करता हूँ ( जावज्जीवं ) जीवनपर्यंत ( तिविहेण ) तीनों प्रकार से ( मणसा-वचसा-काएण) मन-वचन-काय से सावधयोग ( ण ) न स्वयं ( करेमि ) करता हूँ ( ण कारेमि ) न दूसरों से कराता हूँ ( पि) और ( ण कौरंतं ) न करने वालों की ( समणुमणामि ) अनुमोदना करता हूँ । ( भंते ) हे भगवान् ( तस्स ) उन अरहंत देव कथित क्रिया कर्म सम्बन्धी ( अइयारं ) अतिचारों का ( पडिक्कमामि ) प्रतिक्रमण करता हूँ।( जिंदामि ) आत्मसाक्षी पूर्वक निंदा करता हूँ ( गरहामि ) गुरुसाक्षी पूर्वक गर्दा करता हूँ ( जाव ) जितने काल ( अरहताणं ) अरहंतों को ( भयवंताणं) भगवन्तों की ( पज्जुवासं ) पर्युपासना ( करेमि ) करता हूँ ( तावकालं ) उतने काल पर्यन्त ( पावकम्मं ) पापकर्मों को ( दुच्चरियं ) कुचेष्टाओं को ( वोस्सरामि ) छोड़ता हूँ।
[विशेष---इस प्रकार दण्डक पढ़कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके २७ श्वासोच्छ्वास पूर्वक कायोत्सर्ग करें। पश्चात् नमस्कार कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके चतुर्विंशनि स्तव पढ़ें।]
थोस्सामि हंजिणवरे तित्थयरे केवली अणंत जिणे । णर-पवर-लोए महिए विहुय-रय-मले महप्पपणे ।।१।।
अन्वयार्थ ( णर-पवर ) मनुष्यों में श्रेष्ठ ( लोए-महिए ) लोक में पूज्य ( विहुयरय मले ) क्षय किया है कर्म मल को ( महप्पणे ) महान् आत्माओं में ( जिणवरे ) जिनवरों में ( तित्थयरे ) तीर्थंकरों में ( अणंत केवली जिणे) अनंत केवली जिनेन्द्रों में ( हं थोस्सामि ) मैं स्तुति करता हूँ।
भावार्थ-मैं संसार के सर्व मनुष्यों में श्रेष्ठ/उत्तम, त्रिलोकपूज्य, ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्मरूपी रज के मल को क्षय करने वाली महान् आत्माओं, जिनवरों, तीर्थंकरों, अनंत केवली भगवंतों की स्तुति करता हूँ।
लोयस्सुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिणे बंदे । अरहते कित्तिस्से चौबीसं चेव वेवलिणो ।। २।।