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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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अड्डाइज्ज- दीव-दो समुद्देसु पण्णारस-कम्म भूमिसु जावअरहंताणं, भगवंताणं, आदियराणं, तित्थयराणं, जिणाणं, जिणोत्तमाणं, केवलियाणं, सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अंतयडाणं पारगयाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मणायगाणं धम्म वर चाउरंगचक्कवट्टीणं, देवाहि देवाणं, णाणाणं, दंसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमि किरिम्मं ।
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जम्बूद्वीप, धातकीखंड और अर्द्धपुष्कर द्वीप इन ढाई द्वीपों में तथा लवण और कालोदधि समुद्रों में पाँच भरत, पाँच ऐरावत व पाँच विदेह— १५ कर्मभूमियों में होने वाले जितने अरहंत आदि तीर्थप्रवर्तक तीर्थकर, जिनदेव, जिनों में श्रेष्ठ तीर्थंकर केवली, सिद्ध, बुद्ध, मुक्तिप्राप्त सिद्ध, अन्तः कृतकेवली, धर्माचार्य, उपाध्याय, साधु व ज्ञान-दर्शन- चारित्र संबंधी मैं सदा कृतिकर्म करता हूँ ।
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करेमि भंते! सामायियं सव्ध सावज्ज- जोगं पच्चक्ष्खामि जावज्जीवं तिषिण मणसा वचसा कारण, ण करेमि कामि, ग अपां करते पि समणुमणामि तस्स भंते! अइचारं पडिक्कमामि, शिंदामि, गरहामि अप्पाणं, जाव अरहंताणं भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्मं दुच्चरिवं वोस्सरामि ।
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हे भगवन् ! मैं सामायिक काल पर्यन्त सब सावध योग का त्याग करता हूँ | जीवन पर्यन्त मन-वचन-काय से सावध योग का कृत-कारितअनुमोदना से त्याग करता हूँ । हे भगवन्! अपने व्रत में लगे अतिचारों का प्रतिक्रमण निंदा करता हूँ, गर्हा करता हूँ। जितने काल मैं अरहंत भगवन्तों की उपासना करता हूँ उतने कालपर्यन्त पापकर्मों व दुष्चेष्टाओं का त्याग करता हूँ ।
[ इस प्रकार दण्डक पढ़कर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके, ९ बार णमोकार मंत्र, २७ श्वासोच्छ्वास में जपे, कायोत्सर्ग करे पश्चात् तीन आवर्त और एक शिरोनति करके चतुर्विंशति स्तव पढ़े । ]
थोस्सामि हं जिणवरे तित्ययरे केवली अनंत जिणे ।
पर पवरलोय महिए, विहुय रय
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- मले महप्पण्णे ।। १।।