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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका संसार-काण पुग बंप्रम-माणहि भव्य-जीवहिं । णिव्याणस्स हु मग्गो लद्धो तुम्हें पसाएण ।।७।।
( तुम्हें पसाएण ) हे आचार्य परमेष्ठिन् ! आपके प्रमाद से ( संसार काणणे पुण बंभम-माणेहिं ) संसाररूपी वन में पुनः-पुन: भ्रमण करने वाले ( भन्यजीवेहिं ) भव्य जीवों ने ( हु ) निश्चय से ( णिव्याणस्स मग्गो लद्धो ) मोक्ष का मार्ग पाया है।
अविसुद्ध-लेस्स-रहिया-विसुद्ध-लेस्साहि परिणदासुद्धा । रुहट्टे पुण चत्ता थम्मे सुक्के य संजुत्ता ।।८।। __ अर्थ-( अविसुद्धलेस्स रहिया ) जो आचार्य परमेष्ठी कृष्ण, नील, कापोत अशुभ लेश्या से रहित है, ( विसुद्धलेस्साहि परिणदा सुद्धा ) पीत पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं में परिणत होने से शुद्ध हैं । पुन: ( रूद्दढे पुण चत्ता धम्मे सुक्के य संजुत्ता) आर्त और रौद्र दो अशुभ ध्यानों का त्याग करके मोक्ष हेतु धर्म्य और शुक्ल ऐसे शुभ व शुद्ध ध्यान से संयुक्त हैं। उग्गह-ईहावाया-प्रारण-गुण-संपदेहिं संजुत्ता। सुत्तत्थ- भावणाए भाविय-माणेहिं वंदामि ।।९।।
अर्थ--अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा गुण रूपी संपदा से संयुक्त हैं जो ( उग्गहईहावाया, धारणगुणसंपदेहि संजुत्ता ) जो अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा गुण रूप सम्पत्ति से संयुक्त हैं ( सुत्तत्थभावणाए ) श्रुतार्थ की भावना से युक्त हैं ( भावियमाणेहिं ) ऐसे भव्य जीवों के द्वारा पूज्यनीय ( श्रुतार्थ की भावना के भावक ) आचार्यों की ( वंदामि ) मैं वन्दना करता हूँ।
तुम्हं गुण-गण-संथुदि अजाण-माणेण जो मया वुत्तो। देउ मम बोहिलाहं गुरुभनि-जुदत्यओ णिच्वं ।। १० ।। ___ अर्थ---हे आचार्य परमेष्ठिन् ! ( अजाणमाणेण मया ) अज्ञानता से मेरे द्वारा ( जो ) जो ( तुम्हें गुणगणसंथुदि ) आपके गुणों के समूह की स्तुति ( वुत्तो ) कही गई है ( गुरुभत्तिजुदत्थओ ) गुरुभक्ति से युक्त वह स्तुति ( मम ) मुझे ( णिच्च ) प्रतिदिन ( बोहिलाहं ) बोधि अर्थात् रत्नत्रय का लाभ ( देउ ) देवे । अर्थात् गुरुभक्ति के फलस्वरूप मुझे रत्नाय की प्राप्ति हो।