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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका बाल-गुरु-बुड सेक्खग्-गिलाण-थेरे यखमण-संजुत्ता । वट्टावयगा अपणे दुस्सीले चावि जाणित्ता ।।३।।
अर्थ-जो आचार्य ( बालगुरुबुड्डसेहे ) बाल. बड़े, वृद्ध, शिक्षक, साधुओं ( गिलाणथेरे ) ग्लान व स्थविर साधुओं ( य ) तथा ( खमण ) क्षपक ( च ) और ( अण्णे ) अन्य भी ( दुस्सीले ) दुःशील में ( संजुत्ता ) स्थित साधुओं को ( जाणित्ता ) जानकर ( वट्टाव गा) योग्यतानुसार सन्मार्ग में प्रवर्ताने लगाने वाले हैं। बद-समिदि-गुत्ति-जुत्ता-मुत्ति पहे ठाविया पुणो अण्णे। अज्झावय-गुण-पिालमा साहु- गुणादि संशा !!!!
अर्थ----जो आचार्य भगवन्त ( वयसमिदिगुत्तिजुत्ता ) पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त हैं ( पुणो ) और ( अण्णे ) अन्य भव्यजीवों को ( मुत्तिपहे ठाविया ) मुक्तिमार्ग स्थापित करने वाले है { अज्झावयगुणणिल ) अध्यापक अर्थात् उपाध्याय परमेष्ठी के पठनपाठन तथा २५ गुणों के निलय हैं तथा ( साहुगुणेणावि ) साधु परमेष्ठी के २८ मूलगुणों से भी ( संजुत्ता ) संयुक्त हैं। उत्तम-खमाए पुढवी पसण्ण-भावेण अच्छ-जल-सरिसा । कम्मिंघण-दहणादो अगणी बाऊ असंगादो ।। ५ ।।
जो आचार्य परमेष्ठिी ( उत्तमखाए पुढवी ) उत्तम क्षमा में पृथ्वी के समान हैं ( पसण्णभावेण अच्छजलसरिसा) निर्मल भावों से स्वच्छ के समान हैं ( कम्मिंधणदहणादो अगणी ) कर्मरूपी ईधन को जलाने से अग्नि समान हैं तथा ( असंगादो वाऊ ) निष्परिग्रही होने से वायु के समान
गयण-मिवणिरुवलेवा अक्खोहा सायरुष्व मुणि-वसहा । एरिस-गुण-णिलयाणं पायं पणमामि-सुद्ध-मणो ।।६।।
( मुणिवसहा ) मुनियों में श्रेष्ठ आचार्य परमेष्ठी ( गयणमिव निरुवलेवा ) आकाश के समान निरुपलेप है ( सायरुव्व अक्खोहा ) सागर के समान क्षोभरहित हैं ( एरिस गुणग्लियाण) ऐसे उत्तमोत्तम गुणों के स्थान आचार्य परमेष्ठी के ( पायं ) चरणों को ( सुद्धमणो ) शुद्ध मन होकर ( पणमामि ) मैं प्रमाण करता हूँ।