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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । एत्थ पमाद- कदादो अड़चारादो णियत्तोहं । । २ । ।
छेदोवट्टावणं होदु मज्झं
[ इन सबका अर्थ पूर्व में आ चुका हैं ] वृहद आलोचना सहित मध्यम आचार्य भक्ति अर्थ सर्वातिचार विशुद्ध्यर्थं वृहदालोचनाचार्य भक्ति- कायोत्सर्गं करोम्यहम्
अर्थ - अब सब अतिचारों की विशुद्धि के लिये बृहद् आलोचना और आचार्यभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग को मैं करता हूँ-
विशेष - [ इस प्रकार उच्चारण करके " णमो अरहंताणं" इत्यादि दंडक पढ़कर कायोत्सर्ग करें और थोस्सामि इत्यादि स्तव पढ़कर देसकुलजाइसुद्धा इत्यादि रूप से मध्यम आचार्यभक्ति का पाठ करें ]
देस -कुल- जाइ - सुद्धा - विसुद्ध मण वयण काय संजुत्ता ।
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तुम्हं पाय पयोरुह मिह मंगल-मत्यु मे णिच्वं । । १ । ।
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अर्थ - ( देसकुलजाइसुद्धा ) जो देश-कुल- जाति से शुद्ध हैं अर्थात् आर्य देश में उत्पन्न होने से देश शुद्ध हैं व पिता के वंश से कुल, माता के वशं से जाति इन तीनों से जो शुद्ध हैं ( विसुद्धमणवयणकायसंजुत्ता ) विशुद्ध मन, विशुद्ध वचन, विशुद्ध काय से संयुक्त हैं ऐसे ( तुम्हं पापपयोरुहं इह ) आप आचार्य परमेष्ठी के चरण कमल यहाँ ( मे ) मेरे लिये ( णिच्चं ) नित्य ही ( मंगलमत्यु ) मंगल के लिये अर्थात् मंगल रूप हो । सग पर समय-विदहूं आगम हेदूहिं चावि जाणित्ता । सुसमत्था जिण वयणे विणये सत्ताणु-रूवेण ।। २ ।।
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( आगमहेदूहिं चावि जाणित्ता ) जो अरहंत देव द्वारा प्रतिपादित आगम और हेतुओं से छ: द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थों को जानकर (सगपरसमयविदण्हूं ) स्वमन और परमत के ज्ञाता, उनके विचारक हैं (जिणवयणे सुसमत्था ) जिनेन्द्रकथित वचनों के अर्थों के सम्यक् समर्थन में और ( सत्तागुरूवेण ) सत्वानुरूप से ( विणये ) विनय करने में ( सुसमत्था ) अच्छी तरह से समर्थ हैं।