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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका १९५ विधि-नानाश्रित-वासा-नलिप्त
देहान् विनिर्जितेन्द्रिय-करणिः ।।६।। अतुला-नुत्कुटिकासान्विविक्त
चित्ता-नखण्डित स्वाध्यायान् । दक्षिण-भाव-समग्रान् व्यपगत
मद-राग-लोभ-शठ-मात्सर्यान् ।।७।। भिन्नार्त-रौद्र- पक्षान् सम्भावित
धर्म-शुक्ल-निर्मल-हृदयान् । नित्यं पिन-कुगतीन् पुण्यान्,
गण्योदयान् विलीन-गारव-चर्यान् ।।८।। तस-मूल-योग-युक्ता-नवकाशा
. साप-योग-राग-सनाथान। . . ... ...... बहुजन-हितकर-चर्या-नया
ननघान्महानुभाव-विधानान ।।९।। ईदश-गुण-सम्पत्रान् युष्मान्,
भक्त्या विशालया स्थिर-योगान् । विधि-नानारत-मयान् मुकुली-कृत
हस्त-कमल-शोभित-शिरसा ।।१०।। अभिनौमि सकल-कलुष-प्रभवोदय
जन्म-जरा-मरण-बंधन-मुक्तान् । शिव-मचल-मनघ-मक्षय-मव्याहत
मुक्ति-सौख्य-मस्त्विति-सततम् ।।११।।
लघु चारित्रालोचना इच्छामि मंते ! चरित्तायारो, तेरसविहो, परिहाविदो, पंचमहत्वदाणि, पंच-समिदीओ, ति-गुत्तीओ घेदि । तत्य पढमे महदे पाणादिवादादो बेरपणं से पुडवि-काइया-जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, आक-कायाजीवा असंखेज्जा-संखेज्जा-तेऊ-काझ्या जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वाऊकाइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वणप्फदि-काझ्या जीवा अणंताणता, हरिया, बीआ, अंकुरा, छिपणा, भिषणा, एदेसि उद्दावणं, परिदावणं,