________________
१७८
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
चातुर्मासिक, सांवत्सारिक आदि रूप प्रतिक्रमण पद में, अनागत, अतिक्रान्त आदि नौ प्रकार का प्रत्याख्यान पद में वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण योग संबंधी २८ प्रकार कायोत्सर्ग में, अःसही पद में, निःसही पद में, आचारांग आदि ग्यारह अंगों में, उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्वो में, प्रकीर्णक में, प्राभृत में, प्राभृत- प्राभृत में, करने योग्य षडावश्यक कर्मों में या जिनके करने से पाप का क्षय होता है ऐसे कृति कर्मों में, भूत कर्मों में लगे दोषों का प्रतिक्रमण करने की इच्छा करता हूँ। तथा ज्ञान की अवहेलना, दर्शन की अवहेलना, चारित्र की अवहेलना, तप की अवहेलना और वीर्य की अवहेलना में, चौबीस तीर्थकरों के गुणों का वर्णन करने वाले स्तव में और एक तीर्थंकर के गुणों का वर्णन करने वाला स्तुति में, पुराण पुरुषों के चारित्र का कथन करने वाले अर्थाख्यानों में, प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, करणानुयोग आदि अनुयोग में, कृति, वेदना आदि चौबीस अनुयोग द्वारों में, स्वरहीन, अक्षरहीन, पदहीन, व्यञ्जनहीन, अर्थहीन और ग्रन्थहीन दोषों का प्रतिक्रमण करने की इच्छा करता हूँ। अर्हतों, भगवन्तों, तीर्थंकरों..... त्रिलोकीनाथ, त्रिलोकज्ञाताओं, त्रिलोकदृष्टाओं के द्वारा प्रतिपादित जो जीवादि पदार्थ हैं मैं उनकी श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, रुचि करता हूँ, विश्वास करता हूँ। वीतराग अरहंत द्वारा प्रतिपादित उन पदार्थों में श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, विश्वास करने वाले मुझे जो भी दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक [ चातुर्मासिक सांवत्सरिक ] अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, आभोग, अनाभोग दोष लगा, मैंने अकाल में स्वाध्याय किया, स्वाध्याय काल में स्वाध्याय नहीं किया, अन्यथा किया अर्थात् बहुत जल्दी या बहुत धीरे उच्चारण किया, मिथ्या के साथ मिलाया, अन्य अवयव को अन्य अवयव के साथ जोड़कर पद्य बोला हो, उच्चध्वनियुक्त पाठ को नीचध्वनि से और नीचध्वनियुक्त पाठ को उच्चध्वनि से पढ़ा, अन्यथा कहा, अन्यथा ग्रहण किया, अन्यथा समझा, छह आवश्यक क्रियाओं में परिहीनता की हो इन सब दोषों सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।
तिथि, मास, वर्ष आदि के अन्तर्गत दोषों का प्रतिक्रमण
अह पडिवदाए, विदियाए, तिदियाए, उत्थीए, पंचमीए, छठ्ठीए, सत्तमीए, अट्ठमीए, णवमीए, दसमीए, एयारसीए वारसीए तेरसीए,