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fare ज्ञान प्रबोधिनी टीका
अन्वयार्थ – (जिण सासणे ) जिनेन्द्रदेव के शासन में ( जाणि काणि वि) जो भी कोई ( सल्लापि ) शल्य माया, मिथ्यात्व, निदान, आदि या क्रोध, मान, माया, लोभ ( गरहिंदाणि ) निन्दित कहे गये हैं। ( मुणी ) मुनिराज ( सया ) सदा ( ताणि सव्वाणि ) उन सबको ( वोसरिता ) त्याग कर ( णिसल्लो ) निःशल्य होते हैं, हुए ( विहरदे ) विहार करते हैं अथवा मुनिराज सब शल्यों का त्याग करके निज स्वरूप में "विहरदो" अर्थात् विचरण करते हैं ।
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उप्पण्णाणुप्पण्णा माया अणुपुष्वं सो हिंतव्या । आलोयण पडिकमणं गिंदण
गरणदाए । । ३ । ।
अन्वयार्थ - - ( उप्पण्ण ) उत्पन्न अथवा ( अणुप्पणा ) अनुत्पन्न ( माया ) माया को (सो) वे मुनि ( अणुपुत्रं ) क्रमश: ( आलोयण ) आलोचना ( पडिकमणं ) प्रतिक्रमण ( शिंदण ) निन्दा ( गरहणदाए) गर्हा से (हिंतव्चा ) नाश करें ।
मन-वचन-काय की कुलिता का नाम माया है. दुनिय हैं कि जो-जो माया जब जब उत्पन्न हो तब-तब आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा और गर्दा के द्वारा उनका विनाश करें ।
अब्भुविद करण - दाए अब्भुट्ठिद- दुक्कड गिराकरणदाए । भवं भाव पडिक्कमणं सेसा पुण दव्वदो भणिदा । । ४ । ।
अन्वयार्थ - ( अब्भुट्टिदकरणदाए) माया जिन परिणामों से जिस काल में उत्पन्न हुई है, ( अब्भुट्टिददुक्कडणिराकरणदाए) उत्पन्न हुई उस माया का उसी काल में आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा और गर्हा के द्वारा निराकरण कर नष्ट करना चाहिये ( भवं भाव पडिकमणं ) इससे यह भाव प्रतिक्रमण होता है, ( सेसा पुण) पुनः शेष सर्व प्रतिक्रमण ( दव्वदो भणिदा ) द्रव्य प्रतिक्रमण कहा गया है।
अर्थात् माया परिणति का निन्दा, गह आदि से निराकरण करना भाव प्रतिक्रमण है और शेष शब्दोच्चारण मात्र रूप द्रव्य प्रतिक्रमण है । एसो पक्किमण - विही पण्णत्तो जिणवरेहिं सव्वेहिं । णिग्गंथाणं महरिसीणं ।।५।।
संजम तव डिदाणं
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