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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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व्रत है । सव्वं सारं झाणंति णामे ा ) सब सार में "सार ध्यान" से ( बुद्धेहिं ) सर्वज्ञदेवों ने ज्ञानियों ने ( देसिदं ) कहा है 1
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तात्पर्य यह है कि सब सारों में सार व्रत हैं तथा उनमें ध्यान व्रत का भी सार है ऐसा जानना चाहिये क्योंकि ध्यान व्रतों की विशुद्धि का हेतु है ।
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इच्चेदाणि पंचमहव्वदाणि, राइ भोयणादो वेरमणं छट्टाणि, सभावणाणि, समाउग्ग पदाणि स उत्तर- पदाणि, सम्मं, धम्मं, अणुपालइत्ता, समणा, भयवंता, णिग्गंथा होऊण, सिज्झंति, बुज्झंति, मुच्वंति, परिणिव्वाणयंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति, परिविज्जाणंति ।
अर्थ - इस प्रकार ये पाँच महाव्रत और षष्ठम रात्रिभोजन विरक्ति/ त्याग से छह महान् व्रत हैं। जो भावनाओं सहित हैं, अष्ट प्रवचन मातृकाओं से सहित हैं, उत्तर पदों सहित हैं। ये व्रत सम्यक् धर्म हैं, इनका पालन करके श्रमण भगवन्त निर्ग्रन्थ अर्थात् पूर्ण रूप से अन्तरंग - बहिरंग परिग्रह के त्यागी निर्ग्रन्थ हो करके स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि को प्राप्त होते हैं, हेयोपादेय रूप विवेक से सम्पन्न हो केवलज्ञान प्राप्त कर बुद्ध होते हैं, कर्मों से छूटकर मुक्त होते हैं, संसाररूप समुद्र से पार होते हैं, समस्त दुःखों का क्षय करते हैं और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् अच्छी तरह से जानते हैं।
अष्ट
तं जहा
वह इस प्रकार कहा है
पाणादिवादं चहि मोसगं च अदत्त मेहुण परिग्गहं च । वदाणि सम्म अणुपाल- इत्ता, णिव्वाण-मग्गं विरदा उवेंति । । १ । ।
अन्वयार्थ - (विरदा) विरत मुनि ( पाणादिवादं ) प्राणातिपात अर्थात् हिंसा (च ) और (मोसगं ) असत्य ( अदत्त ) चोरी ( मेहुण्ण ) मैथुन (च) और ( परिग्गर्ह ) परिग्रह को ( चहि ) छोड़कर / त्यागकर ( वदाणि ) व्रतों का ( सम्मं अणुपालइत्ता ) समीचीन रूप से अनुपालन कर ( णिवाणगं ) निर्वाणमार्ग को ( उवेंति ) प्राप्त होते हैं ||१ ||
जाणि काणि वि सल्लाणि गरहिदाणि जिण सासणे ।
ताणि सव्वाणि बोसरिता णिसल्लो विहरदे सया मुणी । । २ । ।