SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७१ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका देख-शोधकर भोजन करना इन अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाओं से युक्त होता है। मैं इन पाँच भावनाओं से युक्त हो अहिंसा महाव्रत में स्थित होता है। क्योंकि इनके बिना व्रत निर्मल नहीं रहता । अकोहणो अलोहो य भय-हस्स-विवज्जिदो। अणुवीचि- भास-कुसलो विदियं वदमस्सिदो ।।३।। अन्वयार्थ-(विदियं बदमस्सिदो ) द्वितीय सत्य महाव्रत के आश्रित जीव ( अकोहणो) क्रोध से रहित ( अलोहो ) लोभ से रहित ( भयहस्सविवज्जिदो ) भय, हास्य से रहित ( य ) और ( अणुवीचिभासकुसलो) आगम के अनुकूल बोलने में कुशल हो। ये पाँच सत्य महाव्रत की भावनाएँ है । इन भावनाओं से युक्त सत्य व्रत निर्मल होता है। मैं सत्यव्रत की निर्मलता के लिये इन भावनाओं को भाता हूँ, अपने व्रत में स्थित होता हूँ। अदेहणं भावणं चावि उग्गहं य परिग्गहे। संतुष्ठो भत्तपाणेसु तिदियं वदमस्सिदो ।।४।। अन्वयार्थ तृतीय अन्नौर्यरत को विधि को कालने के लिये मै अचौर्यव्रत की पाँच भावनाओं में तत्पर होता हूँ, क्योंकि [ अदेहणं] अदेहन अर्थात् कर्मवशात् जो देह मैंने प्राप्त किया है वही मेरा धन है, अन्य परिग्रह कोई मेरा नहीं है तथा अदेहन शब्द में पृषोदरादि इत्यादि वाक्य से ध का लोप होकर अदेहधन के स्थान में अदेहन बन गया है । अत: जो १. प्रथम भावना शरीर मात्र को धन मानता है ? २. शरीर में अशुचित्व की भावना करता है, ३. शरीर में अनित्यत्व आदि भावना करता है | अदेहन से तीन भावनाओं को ग्रहण करना।। ( या ) जो ( परिग्गहे ) ४, परिग्रह में ( उग्गहं ) अवग्रह अर्थात् निवृत्ति की भावना भाता है ( चा ) और ( भत्तपाणेसु संतुट्ठो) भोजन-पान आदि चतुर्विध आहार में गृद्धता से रहित होता है ( तिदियं वदमस्मिदो ) वह तृतीय अचौर्यव्रत का धारक है। इस्थिकहा इत्थि-संसग्ग-हास-खेड-पलोयणे । णिथमम्मि ट्ठिदो णियत्तो य चउत्थं वदमस्सिदो ।।५।। अन्वयार्थ ( इत्थिकहा ) स्त्रीकथा ( इत्यिसंसग्ग ) स्त्रियों का संसर्ग ( हास-खेड़-पलोयणे ) स्त्रियों के साथ हास्य-विनोद/हँसी मजाक, स्त्रियों
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy