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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका १४२ -अ अन्वयार्थ ( सदं में आउम्संनो ! ) हे आयुष्मान भव्यों ! सुनो ( इह खलु समणेण, भयवदो, महदिमहावीरेण, मझाकस्सवेण, सव्वण्हुणा सन्जालोगदरसिणा ) इस भरतक्षेत्र में काश्यप-गोत्रीय श्रमण भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महति महावीर तीर्थकर देव ने ( सदेवासुर, माणुसस्स लोयस्स ) लोक के देव, असुर, मनुष्यों सहित प्राणी गण की ( आगदि ) आगति ( गदि ) गति ( चवणोववादं ) च्यवन और उपपाद ( बंधं मोक्खं ) बंध, मोक्ष ( इइिंट ) ऋद्धि ( ठिदि ) स्थिति ( जुदि ) द्युति-चमक ( अणुभागं ) अनुभाग, कर्मों की फलदान शक्ति ( तक्कं ) तर्कशास्त्र ( कलं ) बहत्तर कला ( मणोमाणसियं ) परकीय चित, मन की चेष्टा ( भूतं ) पूर्व में अनुभूत ( कयं) पूर्वकृत ( पडिसेवियं ) पुन: सेवन किये गये ( अदिकम्म ) युग की आदि में प्रवृत्त असि, मसि, कृषि आदि घटकर्म ( अरुहकम्मं ) अकृत्रिम द्वीप, समुद्र चैत्यालय आदि कर्म ( सवलोए ) सर्वलोक में ( सब्बजीवे ) सब जीवों को गम्भाले । म ानों पयों को ( मम जाणंता) एक साथ जानते हुए ( पस्संता ) देखते हुए ( विहरमाणेण ) विहार करते हुए ( स-भावणाणि ) पच्चीस भावनाओं सहित ( समाउग पदाणि) मातृका पदों सहित ( स-उत्तरपदाणि ) उत्तर पदों सहित ( समणाणं पंचमहव्वदाणि ) श्रमणो के पाँच महाव्रत ( राइ-भोयण-वेरमण-छट्ठाणि ) रात्रिभोजन षष्ठम अणुव्रत रूप ( सम्मं धर्म ) समीचीन धर्मों का ( उवदेसिदाणि) उपदेश दिया है। तं ( जैसा कहा है वह इस प्रकार है
भावार्थ:--हे आयुष्मान् भव्यात्माओं ! सुनिये इस भरतक्षेत्र के अन्तिम तीर्थकर, काश्यप गोत्र में उत्पत्रं, श्रमण, भगवान, सर्वज्ञ, सर्वदशी महावीर प्रभु ने तीन लोक के जीवों की आगति कहाँ से आगमन कहाँ गमन, च्युत होना, उत्पत्ति, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, द्युति, कर्मों की फलदान शक्ति, तर्कशास्त्र, गणित आदि बहत्तर कला, दूसरों की मानसिक चेष्टा, पूर्व में अनुभूत, पूर्व में किये गये, पुन:-पुन: सेवन किये गये, युग की आदि में होने वाले असि, मसि आदि छः कर्म, अकृत्रिम चैत्यालय, द्वीप, समुद्र आदि सम्बन्धित कर्म, तीन लोक में समस्त जीवो के समस्त भावों पर्यायों को एक साथ जानते हुए, देखते हुए २५ भावनाओं. अष्ट मातृकाओं, उत्तर पदों सहित श्रमणों के पाँच महाव्रत व रात्रिभाजन विरति नामक छठे अणुव्रत रूप समीचीन धर्म का उपदेश दिया है।