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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका १४१ मधुरस्वाद के प्रति इनमें समानता पायी जाती है, जो हाथ में रखे हुए समस्त आहारों को मधु, गुड़, खाँड, व शक्कर के स्वाद रूप परिणमन कराने में समर्थ हैं वे मधुस्रावी जिन हैं। ४४. णमो अमियसवीणं-अमृतस्रावी जिनों को नमस्कार हो। जिनके हस्त पुट को प्राप्त कर आहार अमृतरूप से परिणत होता है वे अमृतवत्री नि है। जहाँ वरिषर होते हुए जो देवाहार को ग्रहण करते हैं वे अमृतस्रावी जिन हैं। ४५. पामो अक्खीण-महाणसाणं-अक्षीण महानस जिनों को नमस्कार हो । यहाँ चूंकि अक्षीण महानस शब्द देशामर्शक है। अतएव उससे वसति अक्षीण जिनों का भी ग्रहण होता है। महानस का अर्थ है रसोईघर जिनको भात, घृत व भिगोया हुए अन्न स्वयं परोस देने के पश्चात् चक्रवर्ती की सेना को भोजन कराने पर भी समाप्त नहीं होता वे अक्षीण महानस ऋद्धिधारक जिन हैं तथा जिनके चार हाथ प्रमाण भी गुफा में रहने पर चक्रवर्ती का सैन्य भी उस गुफा में रह जाता है, वे अक्षीणावासधारक जिन हैं। ४६. णमो बलमाणाणं-वर्द्धमान जिन को नमस्कार हो । यहाँ महावीर भगवान् को पुन: नमस्कार करने का भाव यह है कि जिनके पास धर्मपथ प्राप्त हो उसके निकट विनय का व्यवहार करना चाहिये । तथा उनका शिर, अंग आदि पंचांग व मन-वचन-काय से नित्य ही सत्कार करना चाहिये । यह जैन-परम्परा का नियम है । उस नियम की पुष्टि यहाँ प्रयोजन है। ४७. णमो सिद्धायदणाणं-लोक में सब सिद्धायतनों को नमस्कार हो। यहाँ “सब सिद्ध" इस वचन से पूर्व में कहे गये समस्त जिनों को ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि जिनों से पृथग्भूत देशसिद्ध व सर्वसिद्ध पाये नहीं जाते । सब सिद्धों के जो आयतन हैं वे सर्व सिद्धायतन हैं। इससे कृत्रिम व अकृत्रिम जिनगृह, जिनप्रतिमा तथा ईषत्प्राग्भार, ऊर्जयन्त, चम्पापुर व पावापुर/पावानगर आदि क्षेत्रों व निषिधिकाओं का भी ग्रहण करना चाहिये। ४८. णमो भयदो महदि महावीर वट्टमाणबुद्धिरिसीणं चेदि -
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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