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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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ऐसी चार अक्षौहिणी अक्षर- अनक्षर स्वरूप अपनी-अपनी भाषाओं से यदि युगपत् . बोले तो भी "संभिन्नश्रोतृ" युगपत् सब भाषाओं को ग्रहण करके प्रतिपादन करता है। इनसे संख्यातगुणी भाषाओं से भरी हुई तीर्थंकर मुख से निकली हुई ध्वनि के समूह को युगपत् ग्रहण करने में समर्थसंभिन्न श्रोतृ के विषय में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। यह बुद्धि बहु-बहुविध और क्षित्र ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से होती हैं ।
१०. णमो सयं बुद्धाणं - उन स्वयंबुद्ध जिनों को नमस्कार हो । जो वैराग्य का किंचित् कारण देखकर परोपदेश की कोई अपेक्षा न रखकर स्वयं ही जो वैराग्य को प्राप्त होते हैं वे स्वयंबुद्ध कहलाते हैं ।
११. णमो पत्तेय बुखाणं- उन प्रत्येक बुद्ध जिनों को नमस्कार हो जो परोपदेश के बिना किसी एक निमित्त से वैराग्य को प्राप्त हो जाते हैं । जैसे नीलाञ्जना को देखकर आदिनाथ भगवान् को ।
१२. णमो बोहिय बुवाणं - उन बोधितबुद्ध जिनों को नमस्कार हो जो भोगों में आसक्त महानुभाव अपने शरीर आदि में आशाश्वत रूप को देखकर परोपदेश से वैराग्य को प्राप्त होते हैं वे बोधितबुद्ध जिन हैं ।
१३. णमो उजुमदीणं - उन ऋजुमति मनः पर्यायज्ञानियों को नमस्कार हो । जो सरलता से मनोगत, सरलता से वचनगत व सरलता से कायगत अर्थ को जानने वाले हैं।
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१४. पामो विउलमदीणं - उन विपुलमति मन:पर्ययज्ञानियों को नमस्कार हो । जो ऋजु या अनृजु मन-वचन-काय में स्थित दोनों ही प्रकारों से उनको अप्राप्त और अर्धप्राप्त वस्तु को जानने वाले विपुलमति
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१५. णमो दसपुवीणं- अभिन्न दसपूर्वीक जिनों को नमस्कार हो । ऐसा क्यों ? भिन्न और अभिन्न के भेद से दसपूर्वीक के दो भेद हैं । उनमें ग्यारह अंगों को पढ़कर पश्चात् परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवाद को पढ़ते समय उत्पादपूर्व से लेकर पढ़ने वालों के दसम पूर्व विद्यानुप्रवाद के समाप्त होने पर अंगुष्ठप्रसेनादि सात सौ क्षुद्रविद्याओं से अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याएँ