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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका प्रज्ञाश्रिता नित्य-ख-गामिनश्च,
स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्तये ।। ४।। अन्वयार्थ ( महाप्रभावान् ) महा प्रभावशाली ( विकुर्वाणाख्य ऋद्धि ) विक्रिया नामक वृद्धि के धारक, ( विद्याधरान् ) विद्याधारक ( चारणऋद्धि प्राप्तान ) चारण ऋद्धि को प्राप्त ( प्रज्ञाश्रितान् ) प्रज्ञावान ( च )
और ( नित्य ) सदा ( खगामिनः ) आकाश में गमन करने वाले ( गणेशानपि ) गणधर देवों की ( तद् ) उनके ( गुणाप्त्यै ) गुणों की प्राप्ति के लिये . ( स्तुवे ) मैं स्तुति करता हूँ।
आशी विषान्दृष्टि-विषान् मुनीन्द्रा-,
नुपाति-दीप्तोत्तम-तप्त तप्तान् । महातिधार -प्रतपःप्रसक्तान,
स्तुवे गणेशानपि-तद्-गुणाप्त्यै ।।५।। अन्वयार्थ-( आशीविषान् ) आशीविष ( दृष्टिविषान् ) दृष्टिविष ऋद्धि के धारक ( मुनीन्द्रान् ) मुनियो को ( उग्रअति ) अति उग्र/उग्राम तप ( दीप्त उत्तम ) उत्तम दीप्त तप ( तप्ततप्तान ) तप्त तप/ घोर तप ( महा अति घोर प्रतपः ) महा अतिघोर प्रकृष्ट तप के धारक ( गणेशानपि ) गणधर देवों की ( तद् ) उनके ( गुणाप्त्यै ) गुणों की प्राप्ति के लिये ( स्तुत्रे ) मैं स्तुति करता हूँ।
वन्द्यान् सुरै-धोर-गुणांश लोके,
पूज्यान् बुधै धोर-पराक्रमांश्च । घोरादि-संसद्-गुण ब्रह्म युक्तान्,
स्तुवे गणेशानपि-तद्-गुणाप्त्यै ।।६।। अन्वयार्थ-( सुरैः ) देवों के द्वारा ( बंद्यान् ) वंदित ( लोके पूज्यान ) लोक में पूज्य ( घोरगुणान् ) घोर गुणों के धारक ( च ) और ( बुधैः पूज्यान् ) लोक में ज्ञानियों के द्वारा पूज्य ( घोरपराक्रमान् ) घोर पराक्रम धारक ( घोरादिसंसद् गुणब्रह्मयुक्तान् ) समीचीन श्रेष्ठ घोर गुण ब्रह्मचर्य आदि से युक्त ( गणेशानपि ) गणधर देवों की ( तद्-गुणाप्त्यै ) उनके गुणों की प्राप्ति के लिये ( स्तुवे ) स्तुति करता हूँ।