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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका अन्वयार्थ---( जित आराति ) जीत लिया है घातिकर्म रूप शत्रुओं जिनने ऐसे ( जिनान् ) जिनेन्द्र भगवान् को ( गणान् ) गुणों में ( गरिष्ठान् ) श्रेष्ठ ( देशावधीन् ) देशावधि ( सर्वपरावधान् च ) सर्वावधि और परमावधि धाक ( सात कोट पोर आः पदानुम्मरीन् ) कोष्ठ ऋद्धि, बीज ऋद्धि पदानुसारि आदि ऋद्धि के धारक ( गणेशान् अपि) गणधर देवों की ( तद् ) उनके ( गुणाप्त्यै ) गुणों की प्राप्ति के लिये ( स्तुवे ) मैं स्तुति करता हूँ।
संभिन्न-श्रोतान्वित-सन्-मुनीन्द्रान्,
प्रत्येक सम्बोषित-बुद्ध-धर्मान् । स्वयं-प्रबुद्धांश्च विमुक्ति-मार्गान्,
__ स्तुवे गणेशानपि तद्-गुणाप्त्यैः ।।२।। अन्वयार्थ (संभिन्न श्रोतान्वित ) संभिन्न श्रोतृत्व से सहित ( प्रत्येक सम्बोधित-बुद्ध ) प्रत्येक बुद्ध, बोधितबुद्ध ( च ) और ( स्वयं प्रबुद्धान् ) स्वयं बुद्ध जो कि ( विमुक्ति मार्गान् धर्मान् ) मोक्षमार्ग रूप धर्म के ( सन्मुनीन्द्रान् ) सच्चे मुनियों के स्वामी हैं ऐसे ( गणेशान् अपि ) गणधर देवों की ( तद् ) उनके ( गुणाप्त्यै ) गुणों की प्राप्ति के लिये ( स्तुवे ) मैं स्तुति करता हूँ।
द्विधा मनःपर्यय-चित्-प्रयुक्तान,
द्विपञ्च-सप्तद्वय-पूर्व सक्तान् । अष्टांग-नैमित्तिक शाला-दक्षान्,
स्तुवे गणेशानपि- सद्-गुणाप्त्यै ।।३।। अन्वयार्थ (द्विधा मन:पर्ययचित्प्रयुक्तान् ) दो प्रकार के मन:पर्ययज्ञान के धारक ( द्विपञ्च ) दस पूर्व ( सप्तद्वयपूर्वसक्तान् ) चौदह पूर्व के धारक ( अष्टाङ्गनैमित्तिक शास्त्रदक्षान् ) अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता, कुशल शास्त्रज्ञ ( गणेशानपि ) गणधर देवों की ( तद् ) उनके ( गुणाप्त्यै ) गुणों की प्राप्ति के लिये ( स्तुवे ) मैं स्तुति करता हूँ।
विकुर्वणाख्यार्वि-महा-प्रभावान्,
विद्याधरांधारण-ऋद्धि-प्राप्तान् ।