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________________ उपदेश मनिका ॥७०11 सम्यगधीत्यकादशसङ्खधान्यान्यनङ्गनिःसङ्गः । व्रतमुररीकृश्य चिरं द्विसागरायु: सुरः समभूत् ।।८।। सौधर्मादायुःक्षयमेत्य विदेहेऽवतारमासाच । चारित्रं सुचरित्वा स सिद्धिमुपयास्यति प्राज्ञः ॥८७॥ | अत्रायमुपनयः खलु विशेयः प्राणिभिर्महाप्राशैः । आत्मप्रबोधहेतोवैराग्यविकाशनार्थ च ।।८।। ___ अत्रार्थे सिद्धान्तगाथा :जह रयणदीवदेवी तह इत्थं अविरई महापावा । जह लाइन्थी पणिण तह सुहकामा इट जीवा ॥८॥ जह तेहिं भीएहि दिटो आधायमंडले पुरिसो। संसारदुक्खभीया पासंति तहेव धम्मकहं ॥९०।। जह तेण तेंसि कहिया दुक्खाण कारणं घोरं । तत्तो बिय नित्थारो सेलगयक्खाउ न य अन्नो ॥९१।। तह धम्मकहो भव्वाण साहए दिट्ठअविरयसहावो । सयलदुहहे उभूया विसयअविरइत्ति जीवाणं ॥५२॥ सत्ताण दुहत्ताणं सरणं चरणं जिणिदपन्नत्तं । आणंदरूवनिब्वाणसाहणं तह य देसेइ ॥२३॥ जह तेसि तरियच्चो रुद्दसमुद्दो तहेव संसारो। जह तेसि सगिहगमणं निवाणगमो तहा इत्थ ।।९।। जह सेलग पिट्ठाओ भट्ठो देवीइ मोहियमईओ। सावयसहस्सपउरम्मि सायरे पाविओ निहणं ॥१५॥ तह अविरईइ नडिओ चरणजुओ दुक्खसावयाइने । निवडइ अपारसंसारसायरे दारुणसरूवे ॥१६॥ जह देवीअक्खोहा पत्तो सठाण जीवियसुहाई। तह चरणठिो साहू अक्खोहो जाई निठवाणं ॥१७॥ ।।७०11
SR No.090524
Book TitleUpdeshsapttika Navya
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages486
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size12 MB
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