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________________ उपदेश ॥४४॥ कस्स वि पुरस्स वाहिरपएसि, ठिय काउसगि अह गुरुनिदेसि । अच्छइ जा उड्ड पलववाह, समरेण दिट्ठ ता गुणसाह ॥१७८॥ समरिय नियमणि वेराणुबंध, खग्गेण वि खंडिय तेण बंध । मुहझाणगयस्स जइस्स तस्स करुणा कह चितिहि तारिसस्स ।। ७९ ।। दुस्सहवेयण सहिय तेज, भूमंडल तक्खणि निवडिएण। चितइ रे जीन परवसेण, तई दिट्ठ दृट्ठह कंपिरेण ||८०|| नरतिरियनरयभवि भमिर जीव, कि कि न सहइ दुस्सह दुह अईव । अन्नाणत्रसंगय अविरओ य, कम्मट्टदुरिउमारिओ य ८१ मा धीर विसाय करेसु चित्ति, अयरसु खमागुण अतणु झति । उत्तरिय जलहि नणू गोपयम्मि, को वुडई पंडिय सुहतरम् ||८२ ॥ झं जीव हिंसाओस, सतूग उवरि करितोस पोस । परिहरमु सयल तं दोसमोस, अइदुद्धर मम करि मणिहिं सोस ॥८३॥ अक्कूरभाव चित्तिहि धरेसु मायानियाणसलुद्ध रेसु । समभाव सव्वसत्तेसु धारि, समरस्स विसेसिहि गुण वारि ॥ ८४ ॥ इपिरि अणुसासद अपि अप्प, तिणि दूरिहि उज्झिय भववियप्प | ट्ठवंत सुहझाणम्मि चित्त, तक्खणि दसपाणिहि सो विमुक्त ॥ ८५ ॥ सहसा देवलोयम्मि पत्त, तत्थ द्विय सुह भुंजइ समत्त । ततो चवित्तु लहिही विदेहि, सिवसुह उप्पजिय इब्भगेहि ॥ ८६ ॥ जह तेण दुलहुबंध वि, बहुकूडकवडपरिपूरिओ त्रि । मितोवम गणिय न दुट्टुभाव, तसु उप्पर आणिय सुहसहाव || ८७ || ॥ घात । अनेहिवि तव किर निम्मिय मण थिर, धारिय जिणवर धम्म घुर । कायव्वा मित्ती सुकय पवित्ती, सव्वोवरि जग सुक्खकर ॥८८॥ ॥ इति शूद्रेऽपि मंत्री भावप्रतिपत्तौ समरविजयकतिचन्द्रसंधिः ॥ सप्ततिव ॥४४॥
SR No.090524
Book TitleUpdeshsapttika Navya
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages486
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size12 MB
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