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________________ उपदेश ।२९०॥ ठाण १ अरुणाभविमाणिहिं सुकय पुन्न, सिरिकामदेव उप्पन्न छन्न ||७५ ॥ तिहिं सत्त हत्थ सुपसत्थ देह, कंचण वन्नुज्जल सुक्खगेह । चत्तारि पलिय पावि वा अण्डरगण सेविय सुहसाउ ||७६ || अह इंदभूइ पुच्छइ जिंगिद पय पणमी भाव धरी अमंद । चविऊण कहि गमिही तओ य, पहु पभणइ गोयम निसुणि सोय ||७७ || उवजिय वित्त महाविदेहि, उत्तमकुलि सावय इव्भ गेहि । तिहि पालीय संजम अव्यक्ख, पामेसइ सासय मुक्ख सुक्ख ।। ७८ ।। सिरिवीरनाह मुहकमल रंगि निसुणोय नाणाविह जुत्तिभंगि । सोहम्मि कहिय जह जंबुसामि, अयइ सुय सत्तम अंगठामि ।। ७९ ।। तिणिपरि मई जंपिय समित्त, नवसंधिबंध बंधुर चरित । अन्नाण दोसि जं इह उसुत, त मिच्छादुर मह निरुत्त ||८०|| इय खेमिहि भासिय धम्मिहि वासिय कामदेव सावय चरिय । जे नियमणि आणई ते सुह माणई सोमवयणि सिवसिरि वरीय ॥८१॥ ।। इति श्रीकामदेवधावकसन्धिः ।। अथ दुर्गुछोपरि निदर्शनं दर्श्यते--- कायन्त्रा न दुगंछा, कस्स वि नियत सुइत्तगब्वेण । कम्मवसगस्स कस्स वि, विससओ साहुवग्गस्स || १|| जो पुण कुणइ अयाणो, नाणज्झाणोवउत्तसाहुस्स । सो सव्वब्वैयकरो, जायइ इह नंदणिउ व्व ||२|| चंपाए नयरीए, सुनंदनामेण वाणिओ आसि । सो अत्तदेहचोक्खत्तणेण अवगणइ सव्वं पि ॥३३॥ जो जं मग्गइ साहू, तस्स तयं देइ परमवशाए । असहमेसाई, सो पुण भंडणरओ बाढ ||४|| अह अन्नया तत्रणमुवागया जल्लपरिगया रिसिणो । गिम्हा | सप्ततिका ।। २९० ।
SR No.090524
Book TitleUpdeshsapttika Navya
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages486
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size12 MB
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