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उपदेश
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ठाण १ अरुणाभविमाणिहिं सुकय पुन्न, सिरिकामदेव उप्पन्न छन्न ||७५ ॥ तिहिं सत्त हत्थ सुपसत्थ देह, कंचण वन्नुज्जल सुक्खगेह । चत्तारि पलिय पावि वा अण्डरगण सेविय सुहसाउ ||७६ || अह इंदभूइ पुच्छइ जिंगिद पय पणमी भाव धरी अमंद । चविऊण कहि गमिही तओ य, पहु पभणइ गोयम निसुणि सोय ||७७ || उवजिय वित्त महाविदेहि, उत्तमकुलि सावय इव्भ गेहि । तिहि पालीय संजम अव्यक्ख, पामेसइ सासय मुक्ख सुक्ख ।। ७८ ।। सिरिवीरनाह मुहकमल रंगि निसुणोय नाणाविह जुत्तिभंगि । सोहम्मि कहिय जह जंबुसामि, अयइ सुय सत्तम अंगठामि ।। ७९ ।। तिणिपरि मई जंपिय समित्त, नवसंधिबंध बंधुर चरित । अन्नाण दोसि जं इह उसुत, त मिच्छादुर मह निरुत्त ||८०|| इय खेमिहि भासिय धम्मिहि वासिय कामदेव सावय चरिय । जे नियमणि आणई ते सुह माणई सोमवयणि सिवसिरि वरीय ॥८१॥
।। इति श्रीकामदेवधावकसन्धिः ।।
अथ दुर्गुछोपरि निदर्शनं दर्श्यते---
कायन्त्रा न दुगंछा, कस्स वि नियत सुइत्तगब्वेण । कम्मवसगस्स कस्स वि, विससओ साहुवग्गस्स || १|| जो पुण कुणइ अयाणो, नाणज्झाणोवउत्तसाहुस्स । सो सव्वब्वैयकरो, जायइ इह नंदणिउ व्व ||२|| चंपाए नयरीए, सुनंदनामेण वाणिओ आसि । सो अत्तदेहचोक्खत्तणेण अवगणइ सव्वं पि ॥३३॥ जो जं मग्गइ साहू, तस्स तयं देइ परमवशाए । असहमेसाई, सो पुण भंडणरओ बाढ ||४|| अह अन्नया तत्रणमुवागया जल्लपरिगया रिसिणो । गिम्हा
| सप्ततिका
।। २९० ।