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________________ उपदेश ।२८८॥ उप्पन्नइ एरिस संकडम्मि, अइभेरवभयसयसंकुलम्मि ॥४९॥ इणिपरि गुणवत्रण करीय तस्स, सिरिकामदेव सावय- 6 सप्ततिका. वरस्स । संपत्त देव सुरलोयठाण, वासव अग्गइ किय तमु बखाण ।।५०।। अह गिन्हेइ भद्दारमण एह, नियचित्ति अभिगद सुकमोह : पोटारितु सिरिजङमाण, पय नमिय पभाय समह सुझाण ॥५१॥ दिणयर उम्गमणिहि सुद्धवत्थ, पहरिय मेलिय नियसयणसत्थ । निग्गच्छई चंपापुरवराओ, सिरिसंखसट्ट जिम मुद्धभाओ ॥५२।। पात-- तिपयाहिणसारीय सामिजुहारिय वारीय आसायण निउण । निसुणइ जिणवाणीय अमीयसमाणीय आणीय मनि आणंदघण ॥५३।। आभासिय सामीय कामदेव, तुह पासि अज संपत्त देव । तिणि रक्खस रूव करी सपुण्ण, करि खम्मधरो तउ छिन्नभिन्न ।।५४।। तयणंतर हस्थिभुयंगमाण, वे उब्धिय रूव महापमाण । तुह तेण उबद्दव भूरि विद्ध, तउं गिरि जिम तिक्खसरिहि न विद्ध ॥५५॥ अइ दुद्धर धोरनण धरेवि, तई पालीय पोसहपडिम लेवि । अह समणासमणी सामि तत्थ, आमंतिय भासइ इय पसत्थ ।।५६ ।। गिहिबास वसतह सावयाण, जइ एरिस निश्चल धम्मझाण । सुत्तत्थसार संगहपरेहि, वेरगलग्गमण मुणिवरे हि ॥५७।। ता संजमवयकजिहि विसेसि, धीरत्तण घरिवओ विसमदेसि । इय सामिवाणि सुणि एगचित्त, सम्वे भणति मुणिवर तहत्ति ।।५८॥ घात-जिणनायग बंदिय गुणअभिनंदिय गोयमपमुह नमेवि ॥२८८॥ करे । पोसह संपूरिय हरिरांकूरिय कामदेव संपत्त घरे ।।५९।। अह काउसम्ग पडिमा करेइ, सो पंचमास विहि अणुसरेइ । छम्मास घरइ वर बंभचेरु, थिरचित्त करी जिम रहइ मेरु ॥६०। साचित्त जिमइ न हु सत्तमास, आरंभ करइ नहु अट्टमास । न करावइ अन्नह पासि तेम, नवमास करइ इणिपरिहिं नेम ।।६१।। तस् कजि रद्ध त नहु जिमेइ, दसमास
SR No.090524
Book TitleUpdeshsapttika Navya
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages486
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size12 MB
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