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________________ खग्गधाराद तेण धीरेण । मोहाइवेरिवागरस तेण मूल समुवखणियं ।।२८०।। देहस्संसो निस्संकयाइ छिनो चिरप रूढोऽवि । पञ्चवखाणकसाया भीया भीया गया दुरं ॥२शा तत्तो परितद्रमणेण सम्मईसणमहाअमञ्चेण । सगरूण To मेव नियड़े चरित्तधम्मोरुचक्कीसो ॥२०२।। से दंसिओ पसन्नो पुनोदय पावणिजसंजोगो । तो कुणइ सुगुरसेवं कयावि १२५९॥ चारित्तमवि लहियं ।।२०३।। युग्मम् ।। तत्तो सुखावयत्ते बयाई बारस धरित्तु ताई पुणो । लोभेण विराहित्ता पमायपावप्पसंगाओ ।।२०४।। रुलिओ बहुकालमिमो लोभपिसाएण लहु गलग्गहिओ । न हु संतोस पत्तो पत्तो अइतिक्ख दुक्रवाई ।।२०५।। एवं लोहविवागं कडुअं नियमाणसग्मि जाणिता । परिहरह अहो भब्बा मुसळं संतोसमावहह ।।२०६॥ ॥ इति चतुःकषायभित भुवनभानुचरित्रानुगतं रष्टान्त चतुष्कं मस्तभ्यं । विस्तराथिभिस्तरधरित्रमेव विलोक्यम् ॥ 11२५९ अथ वचःकाठिन्यपरिहारोपदेशं निदिशति-- जणो सुणित्ता नणु जाइ दुक्खं, त जंपियवं बयणं न तिवखं । इहं परत्यावि य जं विरुद्धं, न किज्जए तंपि कया निसिद्धं ॥३७॥ ध्याख्या-जनो लोकः यत् श्रुत्वा ननु इत्यहो याति प्राप्नोति दुःखमसुखं, तज्जल्पितन्यं वचनं वाक्यं न तीक्षणं
SR No.090524
Book TitleUpdeshsapttika Navya
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages486
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size12 MB
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