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उपदेश-
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बउ गेह ॥३२॥ जइ इत्य सहिजइ किषि कट्ठ, सिवसह पाविजइ तेण इट्ट । न हु कोइ मित्त मह सत्तु तेम. फरुम- समनिका क्खर हउ वागरउ केम ॥३३।। अवराहपरेसुवि पोखेम नहु रोस बहउ जीवियहरेसु। उवयारिमु गुणमयवपरेस, समचित्तवित्ति तह पंडवेस ॥३४।। कइयाबि बुहिट्ठिलभूमिराल, सेवा समुवागय अइकिवालु । दुजोहामइदुज्जणमणिट्ठ, इय तज्जइ रे रे चिट्ठ दुटु ।।३५।। कुलकमलहुयासण होणचित्त, तुह जम्मवि जीविय अप्पवित। अवहेलिय किणि कारणि मुणिद, तइ सीयलसोम जहेह चंद ॥३६।। तझ्या तउ कत्यवि गयउ आसि, गिजंती न सुणीय गुणहरासि। हत्यिमतर वेदिय नियबलेण, जझ्या दवदंतनरेसरेण ॥३७।। पदमं पंचवि अम्हे जिया य, पच्छा पंचवि नियइंदिया य । तो पंचमहब्बय वरिय भार, जिप्पिय कुण सकइ मणि उदार ।।३८।। नमणिज्ज एह जगवंदणिज्ज, पुज्जाणवि मुणिवर एह पुज्ज। इत्थंतरि दुसह महंत पीड, दबदतरायरिसि मिरिकिरीड ॥३९॥ नियआरतणउ पज्जत जाणि, वृत्तारि कसायह करीय हाणि । मणि लीणउ निश्चलसक्कझाणि, चंचलजिय आणीय इकठाणि ॥४०॥ पडिवज्जिय झाणतरियमेस, पज्जालिय कम्मिघण असेस । आरुहिय खवगसेणि मणिद, संपत्तउ केवलसिरिममंद ॥४१॥ न हु लब्भइ जसु गुणतणउ अंत, भगवत नाणदंसण अणंत । दवदंतरायरिसित संत दंत, सेा हुअउ निव्वुइरमणिकंत ॥४२।। (धात) इणिपरि दवदंतह चरिय सुणतह पुनवंत भवीयह नरह । भवपाव पनासइ मण उन्नासइ सासयसुहवंछापरह ।।४३॥ ॥ इति श्रीदवदन्तराजर्षिसन्धिः ||
अथ परोपहासकरणमुत्तमानामतीवानुचितं तद्विषयोपदेशमाह