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न पूणो तुमं व स (भ)क्खाइवाइणो भास छन्नवन्हिसमा । भेा भी जमालि जन्नं (न्नो) कयाइ नासी तहा भवइ ।।३६11 | न कयाविण (ण) भविस्सइ भुवि भावि भविस्सई सयावि हुजं । एस धुवे खलु नि सासयरूवे हवइलोए।।३७।। निच असासए पुण ओस प्पिणिभेयओ दुहा वृत्ते । जीवो निभानिचो दुहावि भणिओ न संदेहो ॥३८॥ दबट्टयाइ निचो पज्जाएहि पुणो अणिची सो। देवत्तं मणुअत्तं लद्ध तिरिनारओ भवइ ।।३९।। इय सिरिवीरगिरं सो न सद्दहइ बहुइ मच्छरमतुच्छं । पहुपासाओ दूरं अवक्कमई रम्नहरिणुव्व 1॥४०॥ वासाइ बहुआइ परमपाणं च मिच्छपकभरे । पाडित्तु समणभावं धरित्तु छद्रुमे किचा ।।४।। नाणं पढित्तु मिठाभिनिवेसमणुज्झिउं महाघोरं । जीवाणमभयदाणं दाउ काउ तवं घोरं ।।४२।। संलेहणद्धमासियमुरीकरिता य तीसभत्ताई। छैइत्ताणसणवसा तमणालोइत्तु उरसुत्तं ।।४३।। काल किदा लंतयप्पे तेरसमियायरठिईसु । किन्विसियनिजरेसुं उत्पन्नो निन्हवजमाली ॥४४|| पन्नरस भवाई तओ भमित्त संसारमज्झयारम्मि ! अंतं काही सोऽवि हु पन्नत्तीए जहा भणियं ।।४५।। एवं नचा सन्नं जिणोवइटुं खु सद्दहेयवं । कायवो न कयाहलेसो कयदुक्यपवेसो ।।४६।।
॥ इति जमालिस्वरूपम् ।। अथ ये जिनाज्ञाराधकास्ते सुखेनैव सिद्धिसमृद्धिसाधकाः स्युरेतदुपरि काव्यमाह
जिणाण जे आणरया समावि, न लग्गई पावमई कयावि ।