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________________ ।। १२१ ।। 1 पियदंसणमवलोइक जिणविव तस्स मांत उल्लसिया तो सुरहिपुष्फमाल मालाए महइ जिणनाहं ॥ २०५ ॥ बहुभत्तीए नमिओ गमिओ पावोदओ पुरा विहिओ । बहुविहभोगसमिद्धी समजिया रजसंपत्ती ॥ २०६॥ | संप कालधम्मं पुत्तत्तं रयणसेहर निवस्स पत्तोपुनुदएणं अभंगसोहग्गसंसगं ॥२०७॥ जिणपूयाइ जमजियम इपुन्नमउव्वहिमगिरिसरिच्छं । तं संपइ तूह नरवर इत्थवि धम्मे घिई जाया || २०८|| पवित्ता अमरतं लहित्तु तत्तो नदितणयत्तं । संजममाराहित्ता गंता तुम मक्खयं ठाणं || || २०९ ॥ इय सोचा नियवित्तं रंजियचित्तो नरेसरो जाओ । अन्नायविरत्तो धम्मथितं चिरं पत्तो ॥ २१० ।। सूरि नमित्तु नियगिहमागञ्च सुसच मग्गबद्धमई । सावयधम्मं सम्मं जहुत्तविहिणा अपालि ।। २११ ॥ इय रयणचंदचरियं जिणिदपूओवर निसामित्ता। कुणह जिणवणमणहं अणुवह जहा सिवसुहाई ॥ २१२ ॥ ॥ इति श्रीजिनार्थायां श्रीरत्नचन्द्ररष्टान्तः ॥ अथ क्रमागतं प्रमादपरिहारोपदेशमाह दुखं सुतिक्खं नरए सहित्ता, पंचिदियत्तं पुण जो लहिता । पमायसेबाइ गमिज कालं, सो लंघिही नो गुरुमोहजालं ||१३|| व्याख्या - दुक्खमिति दुःखितानि खानि इन्द्रियाणि यत्र तत् दुःखं, सुतरामतिशयेन वीक्ष्णं कंटकवदुःसहं नरान् कायन्तीति नरका जातावेकवचनं, सहित्वा विषह्य, सप्तसु श्वभ्रेषु दुःखामयनुभूय ततः क्रमेण केन्द्रियादिजातिषु परिभ्रम्य ।। १२१ ।
SR No.090524
Book TitleUpdeshsapttika Navya
Original Sutra AuthorKshemrajmuni
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages486
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Sermon
File Size12 MB
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