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नमस्कार किया। यह देखकर इन्द्राणियों ने पूछा- 'देव, अत्यन्त श्रद्धा से अभी आपने किसको नमस्कार किया ? संसार में कौन है जो आपके लिए भी नमन करने योग्य है।' (श्लोक' ३१४-३१८)
ईशानेन्द्र बोले-'देवी, अर्हत् धनरथ के पुत्र मेघरथ सरोवर में जैसे श्वेत कमल सुशोभित होता है उसी प्रकार अभी पुण्डरीकिनी नगरी में उपवास और प्रतिमा धारण किए सुशोभित हो रहे हैं। वे भावी तीर्थङ्कर हैं और भरत क्षेत्र के अलङ्कार रूप हैं । यहां से उन्हें देखकर मैंने नमस्कार किया है। मनुष्य का तो कहना ही क्या, देव-दानव, यहां तक कि इन्द्र भी उनको ध्यान से विचलित करने में समर्थ नहीं है।'
(श्लोक ३१९-३२२) . . ईशानेन्द्र की दो इन्द्राणियां सुरूपा-अतिरूपिका को इस कथन पर विश्वास नहीं हुआ। अतः वे मेघरथ का ध्यान भंग करने पृथ्वी पर उतरी और मीनकेतु का प्रासाद-सा या आयुध रूपी सुन्दरी स्त्रियों की सृष्टि को। वे सृष्ट सुन्दरियां मदन को जीवित करने में
औषधि रूप थीं। उन्होंने हाव-भाव से, अनुकल उपसर्ग से उनका ध्यान भंग करना चाहा । लहराती हुई वेणी के बन्धन द्वारा उनमें से एक ने प्रेम के उद्गम स्थल रूम स्कन्ध देश को प्रदर्शित किया । दूसरी अर्द्धस्खलित वस्त्रों से अपने नितम्ब दिखाने लगी जैसेदर्पण से आवरण हटाया गया हो । सखियों से बात करने के बहाने एक ने भ्र देश को बार-बार कम्पित किया। मानो वह मदन का अस्त्र निक्षेप कर रही है। एक ने प्रणयाविष्ट मुख और नेत्रों की अभिव्यक्ति से गन्धार ग्राम में अश्लील गीत गाया। एक सुन्दरी स्व-अनुभूत कामक्रीड़ा की बात अन्य सखी को बार-बार कहने लगी। अन्य एक ने कामात की भांति विभिन्न मुद्राएँ प्रदर्शित कर उनमें काम-वासना जागृत करना चाहा। कोई उनसे बात करने को कहने लगी, किसी ने उनके हाथ का स्पर्श चाहा, किसी ने उनसे कटाक्ष की याचना की, किसी ने उनका आलिंगन करना चाहा। इस प्रकार प्रभात होने तक उन्होंने काम-कला का प्रदर्शन किया। हीरे पर जैसे कुल्हाड़ी का आघात व्यर्थ होता है उसी प्रकार राजा मेघरथ पर फेंके उनके समस्त काम-वाण व्यर्थ हो जाने से इन्द्राणियों ने अपने मायाजाल को समेट लिया। अनुतप्त वे मेघरथ को प्रणाम कर स्व-निवास को लौट गईं।
(श्लोक ३२३-३३५)