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[८९ और मेरा अनुज अनन्तवीर्य वासुदेव था । वही वासुदेव दृढ़रथ है । उस समय दीर्घबाहु दमितारि प्रतिवासुदेव थे। उनकी कन्या कनकश्री के लिए हमने उसे युद्ध में मारा था । उसी ने भव भ्रमण करते हुए इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अष्टापद पर्वत की तलहटी में निवृति नदी के तीर पर सोमप्रभ नामक तापस के पुत्र रूप में जन्म लिया। बालतप करते हुए मृत्यु के पश्चात् वही सुरूप नामक देव हआ। ईशानेन्द्र द्वारा की गई मेरी प्रशंसा को सहन न कर सकने के कारण वह मेरी परीक्षा लेने आया।' (श्लोक २९९-३०५) __कबूतर और बाज ने मेघरथ द्वारा कही अपने पूर्व भव की कथा सूनकर उसी क्षण जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त किया और मूच्छित होकर गिर पड़े। राजा के अनुचरों ने जब उन्हें हवा दी, जल छिड़का तो वे मानो नींद से जागे हों इस प्रकार मूर्छा भंग होने से जाग उठे। उन्होंने स्वभाषा में राजा से कहा- 'प्रभु, आपने हमारे पूर्व जन्म का दुष्कृत्य स्मरण कराया। जिसके फलस्वरूप हमें यह तिर्यञ्च योनि प्राप्त हुई। अत्यधिक लोभ के वशवर्ती होकर आपस में मार-पीट कर हमने एक मनुष्य जन्म ही नष्ट नहीं किया; इस जन्म में भी नरक में जाने योग्य उपक्रम कर रहे थे। अन्धकूप में गिरते हुए को हाथ से बचा लेने की तरह आपने हमें बचा लिया। अब से हे स्वामिन्, आप हमें कुमार्ग से सुमार्ग पर ले जाकर हमारी रक्षा करें ताकि हमारा उत्थान हो।'
(श्लोक ३०६-३११) मेघरथ ने जो कि अवधिज्ञान के समुद्ररूप थे, उन्हें भव्य जीव समझकर यथासमय अनशन ग्रहण करने को कहा। उन्होंने अनशन धारण कर धर्म भावना में मृत्यु प्राप्त की और भवनवासी देवी के इन्द्ररूप में जन्म ग्रहण किया ।
(श्लोक ३१२-३१३) राज मेघरथ पौषध शेष कर मानो मूर्तिमन्त धर्म ही हों इस प्रकार राज्य करने लगे। एक दिन बाज और कबूतर की कथा स्मरण हो आने पर महाशान्ति की बीज रूप संसार-विरक्ति प्राप्त की। उन्होंने तीन दिन तक उपवास का परिषह सहन करने के लिए प्रतिमा धारण की और शरीर को पर्वत की तरह स्थिर कर लिया। उसी समय ईशानेन्द्र जो कि अन्तःपुरिकाओं के साथ स्व-विमान में अवस्थित थे सहसा 'आपको नमस्कार करता हूं' कहकर किसी को