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प्रशान्तमना मेघरथ ने प्रतिमा और उपवास भंग किया। रात्रि की घटना का स्मरण कर वे मुक्ति लाभ के लिए व्यग्र हो उठे । प्रधान महिषी प्रियमित्रा ने स्वामी को मुक्ति के लिए व्याकुल देख कर स्वयं भी मुक्ति की आकांक्षा करने लगी। कारण, सती स्त्री स्वामी के पथ का अनुसरण करती है। कालान्तर में अर्हत् घनरथ प्रव्रजन करते हुए वहां आए और ईशानकोण में अवस्थित हो गए। अनुचरों ने मेघरथ को उनके आवागमन का संवाद दिया। उन्होंने संवादवाहक को पुरस्कृत किया और अनुज सहित अर्हत् घनरथ को वन्दना करने गए। अर्हत् भगवान् ने भी एक योजन तक सुनी जा सके और जो सबके लिए बोधगम्य थी ऐसी भाषा में देशना दी। देशना समाप्त होने पर मेघरथ उन्हें प्रणाम कर बोले'भगवन, आप सबकी रक्षा करने वाले हैं अतः मेरी रक्षा करें। आप सर्वज्ञ हैं फिर भी हैं सबके कल्याणकारी । जगन्नाथ, मैं आपसे एक अनुरोध करता हं-हे प्रभु, अपना कल्याण कौन नहीं चाहता ? अतः जब तक मैं राज्य सिंहासन पर किसी को बैठाकर नहीं लौट तब तक आप यहीं अवस्थित रहें। लौटकर मैं आपसे दीक्षा ग्रहण करूंगा।'
(श्लोक ३३६-३४३) ____ 'शुभ कार्य में विलम्ब मत करो'–अर्हत् धनरथ के ऐसा कहने पर मेघरथ घर गए और अपने अनुज से बोले- 'भाई, अब इस राज्य-भार को तुम ग्रहण करो ताकि मैं दीक्षा ग्रहण कर सक । पथिक की भांति भ्रमण करते-करते अब मैं थक गया हूं।' तब दृढ़रथ करबद्ध होकर बोले-'सत्य ही यह संसार दुःखमय है। जो विवेकशील होते हैं वे इसका परित्याग कर देते हैं । इस राज्य का भार मुझ पर डालकर, जबकि संसार समुद्र का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता, आप मेरा परित्याग क्यों कर रहे हैं ? आज तक आपने मुझे अपने मन के अनुकूल ही समझा तो अब उसका व्यतिक्रम क्यों कर रहे हैं ? कृपया मुझ पर दया करें। आप अपनी तरह मेरी भी रक्षा करें। आज पिताजी से आपके साथ मैं भी दीक्षित होऊँगा । यह राज्य भार आप किसी अन्य को सौंपें ।
(श्लोक ३४४-३४९) तब मेघरथ ने स्वपूत्र मेघसेन को राज्य दिया और दृढरथ के पुत्र रथसेन को युवराज पद पर अभिषिक्त किया। मेघसेन द्वारा