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कालान्तर में लौकान्तिक देवों ने आकर महाराज धनरथ से कहा-'स्वामी, धर्म तीर्थ की प्रवर्तना करे।' धनरथ बोधित तो थे ही अतः उनकी बात सुनकर एक वर्ष तक वर्षीदान देकर मेघरथ को राजा बनाकर और दृढ़रथ को युवराज रूप में नियुक्त कर उन्होंने प्रव्रज्या अङ्गीकार कर ली। केवल-ज्ञान उत्पन्न होने पर भव्य जीवों को उपदेश देते हुए वे पृथ्वी पर विचरण करने लगे।'
(श्लोक १८९-१९१) जिनका पादपीठ अजस्र राजाओं के मुकुटों द्वारा धर्षित होता है ऐसे मेघरथ दृढ़रथ सहित राज्य संचालन करने लगे। एक दिन प्रजा के अनुरोध पर विनोद के लिए वे देवरमण नामक उद्यान में आए । वहां जब वे अपनी रानी प्रियमित्रा सहित एक अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर संगीत सुन रहे थे उसी समय हजारों भूत वहाँ उपस्थित हो गए और उन्हें अभूतपूर्व संगीतानुष्ठान दिखाने की इच्छा प्रकट की। उनमें किसी का पेट लम्बोदर की भाँति था तो किसी की देह इतनी कृश थी कि लगता था मानो रसातल को पकड़े रहने के लिए ही वे सृष्ट हुए हों। किसी का पैर इतना लम्बा था कि लगता था मानो वे ताल वृक्ष पर चढ़े हुए हों। कोई अपनी दीर्घ बाहओं के कारण सर्प-वेष्टित वृक्ष-से लगे रहे थे। किसी ने सों के अलङ्कार धारण कर रखे थे तो किसी ने नेवलों के । किसी की देह पर चीते की छाल थी तो किसी के बाघ की। किसी ने देह पर भस्म रमा रखी थी तो किसी ने गन्ध द्रव्यों को। किसी के गले में उल्लुओं की माला लटक रही थी तो किसी के शकुनि की। किसी के गले में छछन्दरों की माला थी तो किसी के गले में छिपकलियों की, तो किसी के गले में हड्डियों की। कोई अट्टहास कर रहा था तो कोई चीत्कार । कोई घोड़े की तरह हिनहिना रहा था तो कोई मेघ की तरह गरज रहा था। कोई भुजाओं को पीट रहा था तो कोई ताली बजा रहा था। कोई मुख से वाद्य-ध्वनि निकाल रहा था तो कोई काँख से। धरती को जो विदीर्ण कर दे
और आकाश को फाड़ डाले ऐसे अभूतपूर्व पद-विन्यास और देह संचालन कर वे ताण्डव नृत्य दिखाने लगे। (श्लोक १९२-२०३)
राजा के विनोद के लिए जब वे इस प्रकार नृत्य दिखा रहे थे तभी आकाश से एक दिव्य विमान प्रकट हुआ। उस विमान में