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रति और कामदेव - सा सुन्दर एक पुरुष और एक स्त्री थी । उन्हें देखकर रानी प्रियमित्रा ने राजा से पूछा - 'देव, वे कौन हैं ? क्यों और कहाँ से यहाँ आए हैं ?" (श्लोक २०४ - २०६ )
प्रत्युत्तर में मेघरथ बोले- 'इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी पर अलका नामक एक नगरी है । वहां विद्याधरराज विद्युद्रथ और उनकी रानी मनोरमा निवास करती है । उनको एक पुत्र हुआ जो वृक्ष की तरह महाशक्तिशाली था । उसके जन्म के पूर्व रानी ने सिंहवाहित एक रथ देखा था अतः उसका नाम रखा सिंहस्थ । वयः प्राप्त होने पर चन्द्र जैसे रोहिणी से विवाह करता है उसी प्रकार उसने अपने उपयुक्त और अनुकूल कुलोत्पन्ना वेगवती से विवाह किया । कालान्तर में विद्युद्रथ ने उसे युवराज पद पर अधिष्ठित किया । पुत्र के वयस्क हो जाने पर राजा का यही कर्त्तव्य होता है । तदुपरान्त सिंहस्थ, सिंह जैसे अरण्य में इच्छानुसार विचरण करता है उसी प्रकार क्रीड़ा क्षेत्रों में, उद्यानों में, वापियों में यौवन सुख भोग करते हुए विचरण करने लगे ।' (श्लोक २०७-२१२)
'एक दिन विद्युद्रथ के मन में आया कि इस संसार में सब कुछ विद्युतप्रभा की तरह ही क्षण-भंगुर है । इस भांति संसारविरक्त होकर उन्होंने सिंहरथ को सिंहासन पर बैठाया और गुरु के सम्मुख जाकर सब प्रकार के आरम्भ - समारम्भों से संयम ले लिया । मुक्ति के आकांक्षी होकर उन्होंने संयम और व्रत का पालन कर ध्यान के द्वारा अष्ट कर्मों को क्षय कर अन्ततः मोक्ष प्राप्त किया ।' ( श्लोक २१३-२१५)
'उदीयमान सूर्य की तरह प्रभा सम्पन्न सिंहस्थ ने क्रमशः जिसे पाना कठिन है ऐसे विद्याधरों के चक्रवर्तीत्व को प्राप्त किया । एक दिन रात में उन्होंने विनिद्र योगी की तरह इस प्रकार चिन्तन किया - वनजात यूथि पुष्प की तरह मेरा जीवन व्यर्थ है । संसार सागर को अतिक्रम करने में जो जहाज से हैं ऐसे सर्वज्ञ अर्हतों का दर्शन कर स्वयं को पवित्र और धन्य बनाऊँ । कारण, उनका एक बार दर्शन करना ही स्वप्न में देखे कल्पतरु - सा है ।'
( श्लोक २१६-२१९) 'ऐसा सोचकर वे पत्नी सहित अर्हत् अमितवाहन के दर्शनों