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[८१ देखें । यद्यपि अवधिज्ञान से आप तो सभी कुछ देख सकते हैं। फिर भी हमें आपकी सेवा का अवसर दें।' (श्लोक १७१-१७४)
इस भाँति आग्रह करने पर सज्जनता में क्षीरसमुद्र-से मेघरथ परिवार सहित उस विमान पर चढ़े। वह विमान आकाश में उड़ा और इच्छानुसार गति से चलने लगा। जो कुछ भी द्रष्टव्य था उसे वे अंगुली निर्देश कर मेघरथ को दिखलाने लगे :
(श्लोक १७५-१७६) _ 'वह देखिए, यह मेरु पर्वत चालीस योजन ऊँचा और वैदूर्यमणि से निर्मित है। इसके किरण-जाल में ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो आकाश में दूर्वा अंकुरित हो गई है। रत्न-सिंहासन सहित चारों ओर से रक्षित वह अर्द्धचन्द्राकृति शिला है। ये शिलाएँ अर्हतों के स्नानाभिषेक जल से पवित्र हैं। ये शाश्वत जिनेश्वरों के मन्दिर हैं और पाण्डुक वन है। इसके पुष्प अर्हतों की पूजा में निवेदित होकर जीवन की सार्थकता प्राप्त करते हैं। ये छह वर्षधर पर्वत हैं जिससे चौदह महानदियां प्रवाहित होती हैं। ये छह सरोवर हैं। यह देखिए, यह वैताढय पर्वत है जिसकी दोनों श्रेणियों पर विद्याधर निवास करते हैं और जो भरत क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करता है। वेताढय पर्वत के शिखर पर स्थित वे शाश्वत जिन-मन्दिर हैं। जम्बूद्वीप को वेष्टन करती वातायन सहित चक्राकार प्राचीर हैं । यहां विद्याधर क्रीड़ा करने आते हैं।
(श्लोक १७७-१८३) __ 'वह देखिए, लवण समुद्र जिसमें बहुत प्रकार के जल-जन्तु रहते हैं। कालोद परिवेष्टित वह धातकी खण्ड द्वीप है । ये दोनों मेरु पर्वत हैं जिनकी शिलाओं पर अर्हतों का जन्माभिषेक होता है। ये दोनों ईष्वाकार पर्वत हैं जिन पर शाश्वत जिन मन्दिर हैं । वह देखिए पुष्करार्द्ध द्वीप जो देखने में धातकी खण्ड जैसा है। यह मानुषोत्तर पर्वत है। मनुष्य यहीं तक आ सकते हैं । इसके आगे का स्थान मनुष्यों के लिए अगम्य है।'
(श्लोक १८४-१८६) ___इस प्रकार मानषोत्तर पर्वत तक समस्त स्थानों को दिखाकर वे पुण्डरीकिनी नगरी को लौट आए। मेघरथ को प्रासाद में उतारकर और उन्हें प्रणाम कर वहाँ उन्होंने रत्नों की वर्षा को। फिर अपने निवास को चले गए।
(श्लोक १८७-१८८)