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[७५ ही; किन्तु अब तो होंठ और पैरों के नाखूनों के खरोंच लगने से रक्त क्षरित होने से वे और लाल हो उठे। अस्त्रधारी पुरुषों की तरह उन्होंने एक दूसरे को नाखूनों से वींध डाला। हर क्षण कोई 'युवराज्ञी का मर्गा जीत गया' तो कोई सूसेना का मर्गा जीत गया' कहकर चीत्कार कर उठते; किन्तु वास्तव में कोई किसी को पराजित नहीं कर पा रहा था।
(श्लोक ७१-७७) इस भाँति उन्हें परस्पर युद्धरत देखकर घनरथ सहसा बोल उठे-'इनमें से कोई किसी को पराजित नहीं कर सकेगा।'
(श्लोक ७८) मेघरथ ने प्रश्न किया-'पिताजी, तो क्यों ?' घनरथ जो कि अवधिज्ञानी थे बोले-'यह इनके पूर्व जन्म की कथा से सम्बन्धित है । मैं वही कथा सुना रहा हुं सुनो-
(श्लोक ७९-८०) _ 'इस जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में रत्नपूज-सा रत्नपूर नामक एक नगर था। वहाँ धनवसु और दत्त नामक दो वणिक रहते थे। उनमें बड़ी घनिष्ठता थी। पिपासित चातक की तरह उनमें धनाकांक्षा भी असीमित थी। इसलिए वे शकटों में, यानों में बहविध पण्य लेकर विदेशों में जाते रहते । वे ग्राम नगर खानादि में विभिन्न स्थानों में एक साथ दरिद्र के पिता की तरह भ्रमण करते और जब उनके बैल क्षुधा से तृषा से क्लान्त, दुर्बल, आहत, क्षीण या शीत और ग्रीष्म से पीड़ित होकर अथवा अतिभार वहन करने में असमर्थ हो जाते तो वे उन्हें परमाधार्मिक देवों की तरह लाठी, सोंटा, अंकुश से आहत कर या पूछ मोड़कर चलाते । वलदों की पीठ फल-फल जाती पर वे छुरी से उसे चीर डालते । नाक के छिद्र कट जाने पर अन्यत्र छेद कर देते । जाने की जल्दी में बलदों को पूरा विश्राम भी नहीं देते । यहाँ तक कि स्वयं भी चलते-चलते आहार करते । वे कम वजन देते, कम नाप करते, झूठे सिक्के देकर, पण्य की झठी बढ़ाई, कर लोगों को ठगते रहते। प्रायः किसी न किसी बात को लेकर वे आपस में झगड़ते रहते । निष्ठर लोभी तो वे थे ही, मिथ्यात्व के वशीभूत होकर धर्म का नाम भी नहीं लेते थे। एक दिन राग द्वेष से प्रेरित होकर एक दूसरे से लड़ते हुए वे मर गए। आर्तध्यान में मृत्यु होने के कारण दूसरे जन्म में हस्ती रूप में जन्मे । कारण आर्तध्यान में मृत्यु होने से पशु योनि ही