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अतिथि भी तो वैसे ही थे। उन्होंने कुमारों का आलिंगन किया, उनका मस्तक चूमा । उस समय उन्हें अहमिन्द्र के अनुरूप सुख की अनुभूति हुई । तदुपरान्त अपनी प्रिय ज्येष्ठ कन्या प्रिय मित्रा और मनोरमा के साथ मेघरथ का एवं तृतीय छोटी कन्या का दढ़रथ के साथ शुभ मुहूर्त में विवाह कार्य सम्पन्न किया। महा आडम्मर से यथाविधि विवाह सम्पन्न होने के पश्चात् दहेज सहित नितहशत्रु ने उन्हें विदा दी। वे भी अपनी नगरी की ओर प्रस्थित हो गए। राह में सुरेन्द्रदत्त और युवराज को उनका राज्य लौटाकर वे अपने नगर में प्रविष्ट हुए।
__ (श्लोक ५७-६२) __प्रेम के कारण जिस प्रकार इन्द्र और उपेन्द्र एक स्थान में अवस्थित रहते हैं उसी प्रकार दीर्वबाहु मेघरथ और दृढ़रथ अपनीअपनी पत्नियों सहित सुख भोग करने लगे। मेघरथ की पत्नी प्रियमित्रा ने नन्दीसेन को, मनोरमा ने मेघसेन को एवं दृढरथ की पत्नी सुमति ने रत्नों में रोहण की तरह एक पुत्र रथसेन को जन्म दिया।
(श्लोक ६३-६५) एक दिन जब घनरथ अन्तःपुर में यूथ परिवृत्त हस्ती की तरह स्व. पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू, और पौत्रादि से घिरे विनोद में समय व्यतीत कर रहे थे सुसेना नामक एक गणिका हाथ में एक मुर्गा लेकर वहाँ उपस्थित हुई और महाराज से निवेदन किया 'मेरा यह मुर्गा मुर्गों में सर्वोत्तम और मुर्गों का मुकुटमणि है । अन्य मुर्गों से यह कभी पराजित नहीं होता। यदि अन्य किसी का मुर्गा इसे पराजित कर सके तो मैं उसे एक लाख स्वर्ण मुद्रा द्गी। यदि किसी के पास ऐसा मुर्गा है तो वह बाजो जीत ले ।'
(श्लोक ६६-७०) यह सुनकर युवराज्ञी मनोरमा बोली, महाराज, इस शर्त पर मेरा मुर्गा सुसेना के मुर्गे के साथ लड़ाई करेगा। घनरथ की सम्मति मिल जाने पर मनोरमा ने दासी से कहकर अपना मुर्गा बज्रतुण्ड को वहाँ मंगवाया और दोनों को आमने-सामने खड़ा कर दिया। प्रदर्शनी के पदातिक सैनिक की तरह ताल पर पैर फेंककर नृत्य करते-करते उन्होंने एक दूसरे पर आक्रमण किया। कभी उड़कर, कभी गिरकर, कभी आगे बढ़कर, तो कभी पीछे हटकर वे एक दूसरे पर आक्रमण करने लगे। उनके मस्तक लाल तो थे