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नामक रथ पर चढ़े। उभय पक्षों के सैन्यदल द्वारा यन्त्र व हाथों द्वारा आकाश से उक्षिप्त अस्त्र रूपी मेघ से वेधनिका, बरछी, चक्र, बल्लम, गदा, मुद्गर और तीर-शर-निर्मित तीर, मूषिक पुच्छ तीर, लौह तीर आदि, प्रस्तर एवं लौहपिण्ड बरसाने लगे । तदुपरांत उभय पक्षों के सैन्यदल अतिशय निकट हो जाने से तलवारों का अनवरत युद्ध होने लगा जिससे खेचर रमणियों के लिए उस युद्ध को देखना प्रायः असम्भव हो गया। क्षेपणास्त्र से क्षेपणास्त्र भग्न हो गया, रथ से रथ इस भांति विदीर्ण हो गया मानो दो जलदानव समुद्र में युद्ध कर भग्न और विदीर्ण हो गए। कुमारों की सेना शत्रु सेना की अग्रगति से आँधी जैसे वृत्र-समूहों को भग्न कर देती है उसी प्रकार भग्न हो गई।
(श्लोक ४२-४७) स्व अंगरक्षकों को भग्न होते देख क्रुद्ध महाबली राजकुमार ने हस्ती जैसे सरोवर में प्रवेश करता है उसी प्रकार शत्रु सेना के मध्य प्रवेश किया। शत्रु सेना को अब शर-जाल से मानो अन्धकार हो गया है ऐसे उद्वेलित समुद्र के सम्मुखीन होना पड़ा । हस्ती के द्वारा वेतस कुञ्ज जैसे विध्वस्त होता है उसी प्रकार अपनी सेना को विध्वस्त होते देखकर सुरेन्द्रदत्त युवराज सहित युद्ध में अग्रसर हुआ। सुरेन्द्रदत्त मेघरथ के साथ और युवराज दृढ़रथ के साथ युद्ध करने लगे। उन्होंने परस्पर एक दूसरे का अस्त्र भंग किया और क्षेपणास्त्र से क्षेपणास्त्र को। वे युद्ध क्षेत्र में चार दिकपाल-से प्रतिभासित हो रहे थे।
(श्लोक ४८-५२) जाँघों पर ताल ठोक कर एक दूसरे को भय दिखाकर विलक्षण मल्ल की तरह उन्होंने मल्ल युद्ध किया, उस समय वे इस प्रकार संश्लिष्ट हो गए कि लगा वे कुण्डलीकृत साँप हों। मल्ल युद्ध में उनकी महाबलशाली भुजाएँ एक साथ उत्तोलित होने से वे शृङ्गयुक्त गजदन्त पर्वत हो ऐसा भ्रम होने लगा । अन्त में मेघरथ और दृढ़रथ ने सुरेन्द्रदत्त और युवराज को वन्य हस्ती की तरह बन्दी बना लिया। सुरेन्द्रदत्त के राज्य में स्वराज्य की तरह आज्ञा प्रवर्तित कर आनन्दित मेघरथ और दृढ़रथ ने सुमन्दिरपुर की ओर प्रस्थान किया।
(श्लोक ५३-५६) निहतशत्रु ने आगे आकर कुमारों का स्वागत किया । आगत अतिथियों का स्वागत करना तो विशेष कर्तव्य होता ही है फिर