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आनन्दित किया। ( श्लोक २५-२६) राजा धनरथ ने मदन जैसे वसन्त सहित गमन करता है वैसे ही दृढ़रथ सहित मेघरथ को सुमन्दिरपुर भेजा । सामन्त, नृपति, मन्त्री, सेनापति और सैन्य से परिवृत होकर राजाओं ने पार्वत्य नदी की तरह निर्बाध यात्रा की । दीर्घ पथ अतिक्रम कर उन्होंने राजा सुरेन्द्रदत्त के समुद्रसीमा-सी राज्य सीमा के पास छावनी डाली । वहां सुरेन्द्रदत्त द्वारा प्रेरित दूत मेघरथ के निकट आया और गर्वित भाव से बोला : ( श्लोक २७ - ३० ) 'सुरेन्द्र की तरह पराक्रमी हमारे महाराज सुरेन्द्रदत्त ने आपको यह आदेश दिया है कि आप हमारी राज्य सीमा में प्रवेश न करें । आप अन्य पथ से जाएँ । जिस पथ पर सिंह अवस्थान करता है मृगों का उस पथ से जाना उचित नहीं ।' ( श्लोक ३१-३२) यह सुनकर मेघरथ हँसे और बोले - 'यह पथ ही सीधा पथ है । तब इसका परित्याग हम क्यों करें ? नदी गह्वरों को पूर्ण करती है; वृक्षों को उन्मूलित करती है और उच्च भूमि को निम्न भूमि में बदल देती है; किन्तु अपना पथ नहीं छोड़ती । अतः हम सीधे पथ से ही जाएँगे । तुम्हारा प्रभु सरल नहीं है, यदि उसमें शक्ति हो तो हमें रोके । ' ( श्लोक ३३-३५) दूत शीघ्र लौटा और मेघरथ ने जो कुछ कहा था सब कुछ राजा सुरेन्द्रदत्त को निवेदित किया । उसकी बात सुनकर क्रोध से सुरेन्द्रदत्त का मुख तप्त ताम्रवर्ण-सा हो गया । एक हस्ती की चिंघाड़ सुनकर अन्य हस्ती चिंघाड़ उठते हैं वैसे ही उन्होंने युद्ध का नगाड़ा बजवाया। उनकी बृहद् सेना हस्ती, अश्व, पदातिक और रथी युद्ध के लिए उन्मुख हो गए। सेनाओं द्वारा बाहों पर ताल ठोकने से, धनुष की प्रत्यंचाओं के निर्घोष से, अश्व के हषारव से, रथों के घर्घर शब्दों से, हस्तियों के वृहतिनाद से, ऊँटों की तीक्ष्ण आवाज से, गर्दभों की रासभ राग से, भेरी निर्घोष के मेघमन्द्र स्वर से पृथ्वी को बधिर करते हुए राजा सुरेन्द्रदत्त मेघरथ को युद्ध का अतिथि बनाने के लिए उसी मुहूर्त में सैन्यदल लेकर युद्ध - यात्रा को निकल पड़े | ( श्लोक ३६-४१ ) मेघरथ और दृढ़रथ भी जैसे सूर्य अन्धकार का नाश करने के लिए रथ पर आरोहण करता है उसी प्रकार युद्ध के लिए जैत्र