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सहस्रायुध मुकुटबद्ध राजाओं से सेवित होकर परिणीता पत्नी की तरह राज्यश्री का भोग करने लगे । ( श्लोक २१८ ) एक दिन नानाविध मुनियों से घिरे गणधर पिहितास्रव उस नगर में आए। भक्ति के कारण सहस्रायुध उन्हें वन्दन करने गए और कानों के लिए अमृत तुल्य उनके प्रवचन सुने । यह संसार इन्द्रजाल - सा अनुभूत होने से अपने पुत्र शतबली को सिंहासन पर बैठाकर पिहितास्रव मुनि से दीक्षित हो गए और अन्तर एवं बाह्य तप में निरत होकर पृथ्वी पर विचरण करने लगे । (श्लोक २१९-२२२) विचरण करते हुए एकदिन बुध जैसे चन्द्र से मिलता है उसी प्रकार सहस्रायुध वज्रायुध से मिले। पिता और पुत्र तप और ध्यान साधना में निरत हुए । एक साथ उपसर्गों को सहन कर देहबोध को भूले हुए तितिक्षा सम्पन्न बने ग्राम नगर अरण्यादि में विचरण करते हुए दीर्घ दिनों को वे एक दिन की तरह व्यतीत करने लगे । अन्त में उन्होंने ईषद् प्राग्भार पर्वत पर आरोहण कर पादोपगमन अनशन व्रत ग्रहण कर लिया । आयुष्य पूर्ण होने पर वे तृतीय ग्रैवेयक में महाऋद्धि सम्पन्न अहमिन्द्र रूप में १५ सागरोपम की आयु प्राप्त कर उत्पन्न हुए । ( श्लोक २२३-२२७ )
तृतीय सर्ग समाप्त
चतुर्थ सर्ग
जम्बूद्वीप के मध्य स्थित पूर्व विदेह के पुष्कलावती विजय में सीता नदी के तट पर सरोवर के मध्यस्थित कमल की भाँति रत्नमय पुण्डरीकिनी नामक एक नगरी थी। उस नगरी में मृत्युलोक के इन्द्र से शत्रुओं के मनोरथ भग्न करनेवाले, वीरों में अग्रगण्य घनरथ नामक एक राजा राज्य करते थे । समुद्र के गंगा और सिन्धु की तरह उनके दो पत्नियाँ थीं प्रियमती और मनोरमा । वज्रायुध का जीव ग्रैवेयक विमान से च्युत होकर रानी प्रियमती के गर्भ में प्रविष्ट हुआ । रात्रि के शेष याम में उसने स्वप्न में एक मेघपुञ्ज जो कि वज्र और विद्युत्पात सहित वर्षण कर रहा था अपने मुख में प्रविष्ट होते देखा । सुबह उसने स्वप्न - कथा राजा से कही । वे बोले- 'तुम्हारा जो पुत्र होगा वह मेघ की तरह पृथ्वी का सन्ताप