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आप यहीं अवस्थान करें । 'शुभ कर्म में विलम्ब मत करो इस कथन से उद्बुद्ध बने वज्रायुध नगर लौटे और सहस्रायुध को सिंहासन पर बैठाया । सहस्रायुध ने उनका प्रव्रज्या महोत्सव मनायी । तत्पश्चात् वे शिविका में बैठकर क्षेमङ्कर केबली के निकट पहुंचे । चार हजार रानियां, मुकुटबद्ध राजाओं एवं सात सौ पुत्रों सहित उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली । नाना प्रकार के अभिग्रह ग्रहण कर परिषहों को सहन कर प्रव्रजन करते हुए राजर्षि वज्रायुध सिद्धि पर्वत पर गए । 'मैं सब प्रकार के परिषहों को सहन करूँगा' कहकर वे महामना विरोचन शिखर शीर्ष पर एक वर्ष के लिए प्रतिमा धारण कर
अवस्थित हो गए ।
( श्लोक १९७ - २०३ )
अश्वग्रीव के पुत्र मणिकुम्भ और मीनकेतु ने दीर्घकाल तक भव भ्रमण कर अज्ञान तप करते हुए असुर रूप में जन्म ग्रहण किया 1 स्वेच्छा से भ्रमण करते हुए वे महामुनि जहां प्रतिमा में स्थित थे वहां आए । अमिततेज के बैर के कारण भैंसा जैसे वृक्ष पर आक्रमण करता है उसी भांति उस महामुनि पर आक्रमण किया। सिंह बन कर छुरे-से तीक्ष्ण नाखूनों से उनकी देह को दोनों ओर से चीर डाला | हस्ती बनकर सूँड़ से अन्तर वेदी की तरह उन पर आक्रमण किया, दांतों से उनकी देह को क्षत-विक्षत कर डाला । असह्य पदाघात से उनको पीस डाला फिर सर्प बनकर शकट की धुरा की तरह उनकी देह को आवेष्टित कर दोनों ओर लटके रहे । राक्षसे बनकर छुरी-से तीक्ष्ण दांतों से उनकी देह को काट-काट डाला । जब वह महामुनि को इस प्रकार पीड़ित कर रहे थे उसी समय वैमानिक देवों की पत्नियां महामुनि की उपासना के लिए स्वर्ग से उतरीं । रम्भा आदि देवियां दूर से ही इस प्रकार मुनि को पीड़ित होते देखकर बोल उठीं- अरे ओ दुष्ट, तू यह क्या कर रहा है ? ' फिर वे शीघ्रतापूर्वक आकाश से उतरीं । उन्हें उतरते देख वे भीत एवं वस्त होकर वहां से भाग छूटे। सूर्यालोक में उल्लू आखिर कब तक रह सकता है ? रम्भा आदि देवियां इन्द्र से महामुनि के सम्मुख अभिनय द्वारा अपनी भक्ति निवेदित करने लगी । भक्ति निवेदन से स्वयं को कृतकृत्य समझकर वे अपने-अपने निवास को लौट गईं । एक वर्ष की प्रतिमा समाप्त कर अनन्य संयम और व्रतयुक्त महामुनि पृथ्वी पर सर्वत्र विचरण करने लगे । ( श्लोक २०४ - २१७ )