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हे प्रभु, संसार भय से भीत होकर हम अर्हत् क्षेमंकर के आश्रय में जा रहे हैं । आज्ञा दीजिए।
(श्लोक १४५-१४९) ऐसा कहकर उन्होंने चक्रवर्ती की आज्ञा ली और तीर्थंकर क्षेमंकर के निकट जाकर वे दीक्षित हो गए। इन शान्तमना ने सोचा उनका कृश शरीर उन्हें परित्याग कर जा सकता है इस भय से उन्होंने दीर्घकाल तक घोर तप किया। शान्तिमती मृत्यु के पश्चात् ईशानेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुई और उसी मुहूर्त में उन दोनों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। ईशानेन्द्र वहाँ आए, उनका केवल ज्ञान उत्सव कर स्व-देह का पूजन किया। ईशानेन्द्र भी वहाँ से च्यवकर मनुष्य बने और मुक्ति प्राप्त की । अन्य दोनों ने आयुष्य शेष होने पर उसी जीवन में मोक्ष प्राप्त किया। (श्लोक १५०-१५४)
___ सहस्राक्ष इन्द्र और जयन्त स्वर्ग को जैसे संचालन करते हैं उसी प्रकार बज्रायुध और सहस्रायुध ने पृथ्वी पर शासन किया। एक दिन सहस्रायुध की पत्नी जयना ने रात्रि के समय स्वप्न में किरण विच्छुरणकारी एक स्वर्ण शक्ति देखी। दूसरे दिन सुबह जयना ने यह बात अपने पति से कही। वे बोले- 'देवी, तुम अवश्य ही एक महाशक्तिशाली पूत्र को जन्म दोगी।' उसी समय जयना ने एक दुर्वह भ्र ण धारण किया और यथा समय पृथ्वी जैसे शस्य उत्पन्न करती है उसी प्रकार एक पुत्र रत्न को उत्पन्न किया । जयना ने जैसा स्वप्न देखा था उसी के अनुसार माता-पिता ने पुत्र का नाम रखा कनकशक्ति। शैशव अतिक्रम कर कनकशक्ति ने जब यौवन प्राप्त किया तब उसने समन्दिर नगरी के राजा मेरुमालीन और रानी मल्ला की रूप और लावण्यवती कन्या कनकमाला के साथ विधिवत् विवाह किया।
(श्लोक १५५-१६१) ऐश्वर्य सम्पन्न श्रीमार नगरी में अजितसेन नामक एक राजा थे। रानी प्रियसेना के गर्भ से उनके एक पुत्री उत्पन्न हुई। नाम रखा वसन्तसेना । वसन्तसेना कनकसेना की प्रिय सहेली थी। वसंतसेना के पिता ने उसके उपयुक्त वर प्राप्त न होने से स्वयंवरा रूप में उसे कनकशक्ति के पास भेजा। कनकशक्ति ने विधिपूर्वक उससे विवाह किया। इससे वसन्तसेना के पितृस्वसा के पुत्र के मन को भयंकर आघात पहुंचा और वह क्रोधित हो उठा।
(श्लोक १६२-१६५)