________________
[६५
कुछ
क्षणिक है ।' ( श्लोक १२३ - १३१) 'ऐसा चिन्तन कर उसने अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाया एवं स्वयं तीर्थंकर क्षेमंकर से प्रव्रजित हो गया । कठोर तपस्या और ध्यान से घाती कर्मों को क्षय कर उसने यथासमय केवलज्ञान प्राप्त किया । इसके अगले मुहूर्त्त में ही आयुष्यादि चार घाती कर्मों को भी क्षय कर सिद्ध लोक को गमन किया ।' (श्लोक १३२-१३४) 'स्वभाव से ही सुशीला और स्वाधीनचेता प्रभंकरा भी साध्वी सुव्रता के पास रहकर चन्द्रायण व्रत पालन करने लगी । उस तपस्या के फल से उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई । उसी प्रभंकरा ने आपकी कन्या शान्तिमती के रूप में जन्म लिया है । दत्त का जीव विद्याधर अजितसेन हुआ है और पूर्व जन्म के प्रेम के कारण उसने इसका अपहरण किया । अतः क्रुद्ध मत होइए । क्रोध भूलकर आप उसे एक भाई की तरह क्षमा कर दीजिए । दीर्घकालीन कषाय नरक ही ले जाता है, अन्य कहीं नहीं ।' ( श्लोक १३५ - १३८ )
बज्रायुध की बात सुनकर वे तीनों ही वैर से मुक्त होकर मुक्ति के आग्रही बने । ' (श्लोक १३९)
चक्रवर्ती फिर बोले- 'तुम तीनों ही शीघ्र तीर्थंकर क्षेमंकर से दीक्षित होनेवाले हो । शान्तिमती रत्नावली तप करेगी और मृत्यु के पश्चात ईशान लोक में ईशानेन्द्र के रूप में जन्म ग्रहण करेगी । ठीक उसी समय पवनवेग और अजितसेन भी घाती कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त करेंगे । ईशानेन्द्र आकर उनका केवलज्ञानमहोत्सव बहुत धूम-धाम से सम्पन्न करेंगे । और स्व- शरीर (मृत देह) की पूजा करेंगे । कालक्रम से ईशानेन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर मानव रूप में जन्म ग्रहण कर केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को जाएँगे ।' (श्लोक १४०-१४४)
1
वहाँ उपस्थित सभासदों ने जब चक्रवर्ती को त्रिकाल का विवरण देते सुना तो आश्चर्य से उनके नेत्र विस्फारित हो गए । राजा पवनवेग, उनकी कन्या शान्तिमती और विद्याधर अजितसेन चक्री को नमस्कार कर बोले, देव, आप हमारे पिता, गुरु, प्रभु और जगन्नाथ हैं । परस्पर हिंसा करने वाले मनुष्यों में आपके सिवाय हमारी रक्षा कौन करेगा ? एक दूसरे की जाते; किन्तु आपके वचन हमें नरक-द्वार से
हत्या कर हम नरक लौटा लाए हैं । अतः