________________
६४]
देखा । नेत्रों के लिए काजल जैसे अमृत है उसी प्रकार घाती कर्मों के क्षय हो जाने से सुमनस मुनि ने उसी समय अज्ञान अन्धकार को दूर करने वाला केवल ज्ञान प्राप्त किया । देव केवल ज्ञान महोत्सव मनाने वहाँ आए । मुनि का देशनामृत पान कर दत्त अपना पूर्व दुःख भूल गया । उसने समस्त इन्द्रियों को संयमित कर दया धर्म का दीर्घकाल तक पालन किया । शुभ ध्यान में मृत्यु पाने के कारण वह जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में सुकच्छ विजय में वैताढ्य पर्वत स्थित सुवर्णतिलक नगर में विद्याधर राज महेन्द्रविक्रम और रानी अनिलवेगा के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । महेन्द्रविक्रम ने उसका नाम रखा अजितसेन । यथा समय महेन्द्रविक्रम ने समस्त विद्याएँ उसे प्रदान कीं । कारण वे विद्याएँ ही उनकी श्रेष्ठ सम्पदा थीं। बड़ा होकर अजितसेन ने विद्याधर कन्या से विवाह किया और उसके साथ आकाश में, पर्वतों पर, अरण्यों में नानाविध क्रीड़ाएँ करने लगा ।' ( श्लोक १०९-१२२)
विध्यदत्त की मृत्यु के पश्चात् विंध्यपुर में तार्क्ष्यकेतु-सा गौरवशाली नलिनकेतु राजा हुआ और प्रमादी देवों की तरह दत्त की अपहृत पत्नी प्रभंकरा के साथ विषयसुख भोग करने लगा । एक दिन देवी सहित वैमानिक देव जैसे विमान में आरोहण करते हैं उसी प्रकार प्रभंकरा सहित वह प्रासाद शिखर पर चढ़ा । सहसा उसने आकाश में शीलांजन धातु अपहरणकारी दस्यु की तरह इतस्ततः विचरण करते दिक्हस्ती से पर्वताकृति मेघों को उदित होते देखा । वज्रपात के शब्द से दिक् समूह काँप रहा था । विद्युत आलोक से आकाश आलोकित हो रहा था । और उसी मध्य एक इन्द्रधनुष उदित हुआ । उस दृश्य को देख कर वह आनन्दित हुआ । किन्तु; दूसरे ही क्षण उसने देखा प्रबल वायु वेग से वे मेघ नौका की भाँति इतस्ततः छिन्न-भिन्न हो गए, लगा मानो वह इन्द्रजाल देख रहा था । नलिनकेतु ने जब एक पल के अन्दर इस प्रकार मेघ को एकत्र और छिन्न-भिन्न होते देखा तो संसार से विरक्त होकर वह सोचने लगा आकाश में जैसे मेघ एक मुहूर्त्त में उदित हुए और दूसरे मुहूर्त में ही छिन्न-भिन्न हो गए मनुष्य जीवन का सुख भी ऐसा ही है । एक ही जीवन में वह कभी युवक कभी वृद्ध, धनी- दरिद्र, प्रभुभृत्य, स्वस्थ और रुग्न हो जाता है । हाय ! इस संसार में सब