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एक दिन कनकशक्ति जब उद्यान में इधर-उधर घूम रहा था तब उसने एक व्यक्ति को मुर्गे की तरह उड़ते और गिरते देखा। कनकशक्ति ने उससे पूछा-'आप क्यों पक्षी की तरह उड़ते हैं और गिर जाते हैं ? उस व्यक्ति ने जवाब दिया-यद्यपि यह गोपनीय है फिर भी आप जैसे महद् व्यक्ति को कहने में कोई आपत्ति नहीं है। फिर यह बताना भी मेरा कर्तव्य है। मैं विद्याधर हूं। कार्यवश वैताढ्य पर्वत से इधर आया था । लौटते समय इस उद्यान के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर मैं यहाँ उतरा और इसके सौन्दर्य का उपभोग करने लगा; किन्तु पुनः जाने के समय जब मैंने आकाशगामिनी विद्या का स्मरण किया तो देखता हूं, उसकी एक पंक्ति भूल गया हूं। अतः डैनो में डोरा बँधे पक्षी की तरह मैं उड़ता हूं और गिरता हूं।'
(श्लोक १६६-१७१) कनकशक्ति बोला-'अन्य के सम्मुख विद्या उच्चारण करने में यदि कोई बाधा नहीं है तो आप मेरे सामने उच्चारण कीजिए।'
___(श्लोक १७२) विद्याधर ने जवाब दिया-'साधारण आदमी के सामने विद्या उच्चारण निषिद्ध है; किन्तु आप जैसे महान व्यक्ति के सामने उच्चारण करना तो क्या विद्या प्रदान करना भी कर्तव्य है।' ऐसा कहकर उसने एक पंक्तिहीन विद्या का उनके सम्मुख उच्चारण किया । कनकशक्ति ने उस पंक्ति से सामंजस्य रख अन्य पंक्ति बोली। उस पंक्ति से विद्याधर को विद्या पुनः प्राप्त हो गई और उसने कनकशक्ति को वह विद्या प्रदान की। विवेकशील उपकृत होने पर उपकार का प्रतिदान देते ही हैं। तदुपरान्त विद्याधर उन्हें नमस्कार कर चला गया और कनकशक्ति विद्या अधिगत कर विद्याधर हो गया। बसन्तसेना के पितृस्वसा के पुत्र को जो क्रोध आया था इसीलिए वह उसका कुछ नहीं कर सका । अपमानित होकर उसने आहार जल का परित्याग कर मृत्यु को प्राप्त किया और हिमचल नामक देव रूप में उत्पन्न हुआ।
(श्लोक १७३-१७८) अपनी पत्नी वसन्तसेना और कनकमाला के साथ कनकशक्ति विद्या के प्रभाव से वायु की भाँति समस्त पृथ्वी पर अप्रतिहत रूप में विचरण करने लगा। एक दिन इसी भाँति स्वच्छन्द विचरण करता हुआ वह हिमवत पर्वत पर आया। वहाँ उसने चारण मुनि