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एक दिन वे नन्दन पर्वत पर आरोहण कर एक रात्रि की प्रतिमा धारण किए अवस्थित थे। उनके पूर्व जन्म के शत्र अश्वग्रीव के पुत्र ने बहुत सी जीवयोनियों में भ्रमण कर दैत्य रूप में जन्म ग्रहण किया था, उसने उन्हें वहाँ खड़े देखा । पूर्वजन्म की शत्रुता के कारण क्रुद्ध होकर उसने उन पर उसी प्रकार आघात किया जैसे महिष वृक्ष पर करता है। किन्तु; वह उन्हें ध्यान से विचलित नहीं कर सका। हस्तीदाँत के आघात से क्या कभी पर्वत विचलित होता है? आश्चर्यचकित होकर वह असुर मस्तक नीचे किए चला गया और मुनि मेघनाद ने अपना ध्यान पूर्ण किया। उपसर्ग और परिषहों को सहन कर उन्होंने दीर्घकाल तक तपस्या की। अन्तिम समय में अनशन द्वारा देह त्याग कर वे अच्युत देवलोक में अच्युतेन्द्र के सामानिक देव रूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक ४१६-४२१) द्वितीय सर्ग समाप्त
तृतीय सर्ग जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर मङ्गलावती नामक एक विजय था। उस विजय में रत्नों की अधिकता के कारण रत्नाकर की वधू रूपा रत्न संचय नामक एक नगरी थी। वहाँ खेमंकर नामक एक राजा राज्य करते थे। वे संग्रह और सुरक्षा के प्रतिरूप थे और वायु की भाँति शक्तिशाली थे। रत्नमाला-सी निष्कलंक और पुष्पमाला-सी कोमल रत्नमाला नामक उनकी एक रानी थी।
(श्लोक १-४) सीप में जैसे मुक्ता वद्धित होता है वैसे ही उसके गर्भ में अच्युतेन्द्र अपराजित का जीव अच्युत देव लोक से च्युत होकर वद्धित होने लगा। सुख-शय्या में सोयी रानी ने रात्रि के शेष याम में चौदह महास्वप्न देखे और पन्द्रहवें स्वप्न रूप में वज्र देखा। जागने पर उसने यह बात स्व पति से कही। प्रत्युत्तर में वे बोले, तुम्हारा पुत्र वज्र इन्द्र की भाँति चक्रवर्ती राजा होगा । (श्लोक ५-७)
___ यथा समय उसने नयनों को आनन्द देने वाले छठे लोकपाल से श्रेष्ठ बल के अधिकारी एक पुत्र को जन्म दिया। रानी ने जब वह गर्भ में था तो वज्र देखा था इसलिए उसके पिता ने उसका नाम